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ब्रह्माद्वैतवाद का खंडन ]
तृतीय भाग
[ अद्वैतवादी स्वस्य पूर्वपक्षं स्थापयति ] नन्विदमयुक्तमेव संलक्ष्यते ।--'अद्वैतं ह्य कात्म्यं, 'द्वाभ्यामितं द्वीतं, द्वीतमेव द्वैतं, न द्वैतमद्वैतमिति व्याख्यानात् । तस्यैकान्तस्तदेवेत्यभिनिवेशः । तस्य पक्ष: प्रतिज्ञाभ्युपगममात्रम् । तस्मिन्नपि दृष्ट: साक्षात्कृतोनुमितश्च कारकाणां कादीनां क्रियायाश्च स्थानगमनादिरूपाया निष्परिस्पन्दस्वभावायाः परिस्पन्दरूपायाश्च भेदः प्रत्यक्षेणानुमानेन च विरुध्यते, तदभ्युपगममात्रस्य प्रत्यक्षादिप्रमाण सिद्धक्रियाकारकभेदप्रतिरोधित्वासंभवात् क्षणिकत्वाभ्युपगमवदिति तात्पर्यव्याख्यानमकलङ्कदेवानाम्' । न हि कारकभेदः प्रत्यक्षादिनाऽद्वैतेपि विरुध्यते, पादपस्यैकस्य युगपत्क्रमेण वा कर्नाद्यनेककारकात्मकत्वप्रतीतेः? क्रियानानात्वमप्येकस्य तथैव न प्रतिषिध्यते, देशाद्यपेक्षया गमनागमनयोः 'स्थानशयनयोर्वा सकृदपि निश्चयात् ।
[ अद्वैतवादी अपना पूर्व पक्ष स्थापित करते हैं। । अद्वैतवादी-यह कथन अयुक्त ही मालूम होता है अर्थात् जो आपका कहना है कि-ऐकात्म्य को अद्वैत कहते हैं । "द्वाभ्यामितं द्वीतं" जो प्रमाण और प्रमेयरूप दो के द्वारा प्राप्त निश्चित हो उसे द्वीत कहते हैं । द्वीत में ही अण प्रत्यय होकर द्वैत शब्द बनता है। "न द्वैतं अद्वैतं" इस प्रकार से न समास में जो द्वैत नहीं है वह अद्वैत है ऐसा व्याख्यान हुआ। उसका एकांत-"ऐसा ही है" इस प्रकार का अभिप्राय एकांत कहलाता है। उस एकांत का पक्ष करना-उसको स्वीकार करना "अभ्युगममात्र" कहलाता है।
उस अद्वैतैकांत पक्ष में भी देखा गया-साक्षात् किया गया और अनुमति किया गया कारक कर्ता आदि का भेद एवं क्रिया (स्थान आदिरूप निष्परिस्पंद स्वभाव क्रिया तथा गमनागमन आदि रूप परिस्पंद स्वभाव क्रिया) का भेद भी प्रत्यक्ष एवं अनुमान से विरोध को प्राप्त होता है। जैसे कि क्षणिकत्व की मान्यता में प्रत्यक्षादि से सिद्ध हो रहा अन्वयरूप अभेद विरोध को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार से "श्री भट्टाकलंकदेव" का तात्पर्य व्याख्यान है ।
यह सब जैनाचार्यों का कथन अयुक्त ही है। हमारे यहाँ अद्वैत में भी प्रत्यक्ष आदि से कारक
1 बुद्धाभ्यां विधिप्रतिषेधाभ्यां सामान्यविशेषसदसविशेषणविशेष्यादीनामितं समवस्थितं द्वीतं द्वैतमेव द्वतं न द्वैतमद्वैतमित्यत्र स्वाथिकोण । दि० प्र०। 2 आग्रहः । अद्वैतैकान्तम् । दि० प्र०। 3 एवंविधवत्तिवाक्यस्य । ब्या०प्र० । 4 देशकालापेक्षया एक: पुरुषो युगपद्गमनागमनरूपक्रियां करोति । यथा कश्चिद्गृहाद्वनं गतः । गृहस्यापेक्षया गतः । वनस्यापेक्षया आगतः। दि० प्र०। 5 गतिनिवत्तिमात्रम् । ब्या० प्र०। 6 युगपत् । ब्या० प्र० ।
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