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अष्टसहस्री
[ द्वितीय परिच्छेद कारिका २४ अद्वैतकान्तपक्षेपि दृष्टो भेदो विरुध्यते ।
'कारकाणां "क्रियायाश्च 'नक स्वस्मात्प्रजायते ॥२४॥ सदायेकान्तेषु दोषोद्धावनमभिहितमाचार्यैः । केवलमद्वैतैकान्ताभ्युपगमान्न तावतानेकान्त"सिद्धिरिति चेन्न, प्रत्यक्षादिविरोधात् । न हि कस्यचिदभ्युपगममात्रं प्रमाणसिद्ध 14क्रियाकारकभेदं प्रतिरुणद्धि क्षणिकाभ्युपगमवत् ।
यदि अद्वैतरूप है सब जग, यह एकांत लिया जावे । तब तो कारक और क्रिया का, भेद दिख वह नहिं पावे ।। दिखता है साक्षात् भेद जो, वह भी है विरुद्ध होगा।
क्योंकि एक ही-ब्रह्मा ही, निज से उत्पन्न नहीं होता ।।२४।। कारिकार्थ-ब्रह्माद्वैत, शब्दाद्वैत, ज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत आदि अद्वैत एकांत पक्ष में भी कारक और क्रियाओं का देखा गया भेद विरोध को प्राप्त होता है क्योंकि कोई भी एक (ब्रह्म) अपने से ही आप उत्पन्न नहीं होता है ।।२४।।
अद्वैतवादी-"आप जैनाचार्यों ने सदादि एकांत पक्षों में दोषों का उद्भावन किया है और हम केवल अद्वैत एकांत को स्वीकार करते हैं अतः सत् आदि एकांतों के निराकरण मात्र से ही आपके अनेकांत की सिद्धि नहीं हो सकती है।
__ जैन-ऐसा नहीं कहना। क्योंकि आपके अद्वैत एकांत पक्ष में तो प्रत्यक्ष आदि से ही विरोध आता है। आप अद्वैतवादियों के द्वारा स्वीकृत किया गया मात्र अद्वैत एकांत पक्ष प्रमाण से सिद्ध क्रिया और कारक के भेद का प्रतिरोध नहीं कर सकता है । जैसे कि बौद्धों द्वारा स्वीकृत क्षणिक एकांत वस्तु के नित्यत्व को रोक नहीं सकता है।"
1 सदायेकान्तनिराकरणेपि कथमनेकान्तसिद्धिर्भवेत प्रत्यथितोऽद्वैतस्य विद्यमानत्वादित्याशंकायामाह। दि० प्र० । 2 न केवलं सदायेकान्तेष दुष्टो भेदो विरुद्धयते । अद्वैतकान्तपक्षेऽपि षण्णां कारकाणां क्रियायाश्च साक्षात्कृतोनुमितश्च भेदो विहन्यत इत्यपि शब्दार्थः । न केवलं द्वैतपक्षः । दि०प्र०। 3 अनुमानेन प्रत्यक्षेणानुमित: साक्षात्कृतश्च । दि प्र० । 4 चेतनेतररूपाणाम् । ब्या० प्र० । 5 कर्तृ साध्यायाः कत् कर्मस्थायाः स्थानागमनादिरूपायाः स्थिरचलस्वभावायाः षोढा समीक्षिताया: । अस्ति । जायते । विवर्द्धते । परिणमते । अपक्षीयते । विनश्यतीत्येवंशीलायावर्त्तमानादिभेदभित्रायाः। दि० प्र०। 6 एतेषां मध्य एकमपि नोत्पद्यते । दि० प्र०। 7 अविद्याविलसितमिदं विश्वमभ्युपगम्यत इति चेदास्तां तावदेततपुण्यपापक्रिया न स्यादित्यादिनानिषेत्स्यमानत्वात् । ब्या० प्र०। 8 ननु च भावाद्येकान्तेष उक्तदूषणस्य परिहारत्वात्तत्पक्षोमास्मसिधत् तथास्यानेकान्तवादिनां नानेकान्तसिद्धरद्वैतकान्तस्याभ्यू. पगमादिति वदतो द्वैतवादिनः वचनमनूच परिहरन्नाह । दि० प्र०। 9 सप्तभंगी प्रतिपादनावसरे। ब्या० प्र० । 10 दोषोद्भावनमात्रणव । ब्या० प्र० । 11 तावताद्वैतैकान्ताभ्युपगममात्रेण तस्याद्वैतस्येकान्तस्तदेकान्तसिद्धिन्न । दि० प्र० । 12 इति न शंकनीयं तावतादेकान्तसिद्धिर्भवति । दि० प्र० । 13 अद्वैतवादिनः । दि० प्र० । 14 वादिनः प्रतिवादिनश्च प्रमाणरहितमंगीकरणमात्रम् । दि० प्र० । 15 निराकरोति । दि० प्र० ।
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