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श्रीमद्विद्यानंदिस्वामिविरचिता
अष्टसहस्त्री
(तृतीय भाग) स्याद्वादचिन्तामणि-हिन्दी टीका सहित
टीकाकत्री-आर्यिका ज्ञानमती) अथ द्वितीयः परिच्छेदः
मंगलाचरणम् अद्वैतद्वैतनिर्मुक्तं, शुद्धात्मनि प्रतिष्ठितम् । ज्ञानकत्वं परं प्राप्त्यै, नुमः स्याद्वादनायकम् ॥
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः' किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विज्ञायते ययैव स्वसमयपरसमयसद्धावः ॥१॥
अर्थ-अद्वैत और द्वैत से रहित, शुद्धात्मा में प्रतिष्ठित, उत्कृष्ट जो ज्ञान का एकत्व हैएकरूपता है उसकी प्राप्ति के लिये हम स्याद्वाद के नायक श्री जिनेंद्रदेव को नमस्कार करते हैं। (यह मंगलाचरण हिन्दी टीका की द्वारा किया गया है।)
श्लोकार्थ-जिसके द्वारा ही स्वसमय और परसमय का सद्भाव जाना जाता है ऐसी अष्टसहस्री को ही सुनना चाहिये अन्य हजारों शास्त्रों के सुनने का क्या प्रयोजन ? अर्थात् इस अष्टसहस्री के पठन श्रवण से ही स्वमत और परमत का ज्ञान हो जाता है इसलिये इसे अवश्य पढ़ना चाहिये ॥१॥
1 भाषाटीकाकर्त्या कृतोऽयं श्लोकोऽस्ति । 2 श्रवणविषयीकर्तुमर्हा । दि० प्र०। 3 श्रवणविषयीकृतः । दि.प्र.।
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