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माताजी प्रारम्भ से ही धुन की पक्की रहीं । सहसा किसी काम को हाथ में लिया नहीं और जिस काम को हाय में ले लिया उसे बीच में अधूरा छोड़ा नहीं । वैसे इसके अनुवाद कार्य में अनेक विघ्न बाधाएं भी आई, किन्तु माताजी ने किसी की भी परवाह नहीं की। माताजी ने इस ग्रन्थ को सर्वजन सुलभ बनाने के लिए भावार्थ, विशेषार्थ एवं सारांश लिखे । यदि यह सब नहीं किया जाता तो हिन्दी अनुवाद हो जाने के बाद भी अष्ट सहस्री कष्टसहस्री ही बनी रहती।
जितना श्रम अनुवाद करने में माताजी ने किया उससे भी अधिक श्रम उन्हें प्रकाशन के समय करना पड़ा। हम लोगों ने तो प्रफ रीडिंग किया ही, किन्तु फिर भी जब फर्मा फाइनल प्रफ पढ़कर जाने लगता तो एक नजर माताजी को डालने के लिए निवेदन किया जाता तब दस पाँच अशुद्धियां विशेषकर टिप्पणियों में निकल ही आतीं। माताजी का यह श्रम भी अकथनीय रहा। सहस्रों कष्ट उठाकर भी जब कार्य की सिद्धि हो जाती है तब उन कष्टों का स्मरण करना व्यर्थ रहता है। कार्यसिद्धि के बाद तो आनन्दानुभूति होती है। बीस वर्ष से रुका हुआ यह कार्य आज पूर्ण होते देखकर भला किसको प्रसन्नता नहीं होगी।
संसार भर के मनीषियों के लिए जैनधर्म को जानने के लिए जैन न्यायदर्शन में यह अष्टसहस्री ही सर्वोपरि प्रन्थ है । इसका मूलस्वरूप आचार्यश्री समंतभद्रकृत आप्तमीमांसा को ११४ कारिकाएं हैं । इन कारिकाओं में आचार्यदेव ने भगवान् जिनेन्द्र की मानों परीक्षा करते हए ही भक्ति की है। इन्हीं कारिकाओं को लेकर आचार्य अकलंकदेव ने अष्टशती नाम से टीका लिखी। इन कारिकाओं एवं अष्टशती टीका को लेकर आचार्य विद्यानन्दि स्वामी ने अष्ट सहस्री नाम से वहद टीका रची जो आपके हाथ में है।
भगवान जिनेन्द्र एवं उनके द्वारा प्रतिपादित जिनधर्म में आस्था को दृढ़ करने के लिए अष्टसहस्री ग्रन्थ सर्वश्रेष्ठ है । भले ही प्रारम्भ में इसका स्वाध्याय अध्ययन कठिन प्रतीत होगा किन्तु बार-बार इसका पठन-पाठन करने से निश्चित ही जिनधर्म में श्रद्धा दृढ़ होगी। मुझे इन पंक्तियों को लिखते हुए अत्यन्त गौरव का अनुभव हो रहा है कि इस ग्रन्थ की हिन्दी टीका करने का मूल निमित्त मैं ही हैं। न्यायतीर्थ की परीक्षा देने के लिए जब पूज्य माताजी ने मुझे अष्टसहस्री पढ़ाना प्रारम्भ किया तो मैंने माताजी से निवेदन किया-"मुझे कुछ भी समझ में नहीं आता" तब माताजी ने अष्टसहस्री का अनुवाद करना प्रारम्भ कर दिया और देखते ही देखते वह पूर्ण भी हो गया । जब पूरी अष्टसहस्री का मंथन माताजी ने कर लिया, तो सुगमता से समझने के लिये एक-एक विषय के लगभग ५६ सारांश बना दिए।
अनुवाद पूर्ण करने में तो माताजी को मात्र सवा साल का समय लगा जबकि उसे छपाने में पूरे बीस साल बीत गये। आज वह महानु अनुवादित कृति प्रकाशित होकर सबके स्वाध्याय अध्ययन के लिए उपलब्ध है।
जम्बूद्वीप हस्तिनापुर चैत्र शुक्ला १ वि० सं० २०४७
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