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________________ अष्टसहसी एवं पूज्य माताजी का श्रम मेरी दष्टि में __ - पीठाधीश क्षु० मोतीसागर समय बीतते देर नहीं लगती। ऐसा लगता है कि अभी कल की ही बात है जबकि अब से २३ वर्ष पूर्व इन्हीं दिनों में प० पू० ज्ञानमती माताजी अपने आर्यिका संघ सहित म०प्र० के उस महान् सिद्ध क्षेत्र पर विराजमान थीं, जहाँ से इन्द्रजीत एवं कुम्भकरण आदि महामुनियों ने निर्वाणपद की प्राप्ति की है ऐसे बड़वानी नगर के दक्षिण में चलगिरि पर्वत की तलहटी में जहां पर एक ही शिलाखण्ड में उत्कीर्ण संसार भर में सर्वोन्नत ८४ फूट ऊँची भगवान् आदिनाथ की खड्गासन नग्न दिगम्बर प्रतिमा विराजमान है। वहां से सिद्धक्षेत्र पवागिरी ऊन तथा सिद्धवरकूट के दर्शन हेतू विहार किया। महावीर जयन्ति के दो दिन पश्चात् प० निमाड़ जिले के सुप्रसिद्ध नगर सनावद में शुभागमन हुआ। तभी मैंने सर्वप्रथम माताजी के दर्शन किए और परिचय हुआ। मैंने अपने जीवन में केवल एक काम अपने मन से किया वह था आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने का। उसके बाद जो भी काम किए उन सबकी प्रेरणास्रोत पू० माताजी ही रहीं। घर छोड़कर संघ में रहने की, पुनः धार्मिक अध्ययन करने की, जम्बूद्वीप रचना निर्माण की, साहित्य प्रकाशन, सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का प्रकाशन, जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन आदि की प्रेरणा पू० ज्ञानमती माताजी से ही प्राप्त हुई। __ माताजी के साथ रहते हुए मैंने अपने मन से कोई भी योजना नहीं बनाई । हां, माताजी के मन में जो भी कार्य करने की भावना उत्पन्न हुई उसे मैंने अपनी शक्ति के अनुसार करने और करवाने का अथक प्रयास किया। उन्हीं में से एक कार्य इस महान् ग्रन्थ अष्टसहस्री के प्रकाशन का है। दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अन्तर्गत “वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला" का शुभारम्भ तो सन् १९७२ में दिल्ली में हुआ किन्तु उससे पहले अष्टसहस्री के प्रथम भाग के प्रकाशन का कार्य अजमेर-ब्यावर से ही प्रारम्भ हो गया था। इस ग्रन्थ का अनुवाद तो दुरूह था ही तभी तो क्षु० गणेशप्रसादजी वर्णी इस अवसर की प्रतीक्षा करते हुए चले गये किन्तु उनके रहते हुए उन्हें इसका अनुवाद करने वाला कोई सक्षम विद्वान नहीं मिला। इस ग्रन्थ की महानता के विषय में श्री जुगलकिशोर मुख्तार वीर सेवा मन्दिर वालों ने अपनी पुस्तक "देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा" की अनुवादकीय में लिखा है-एकबार खुर्जा के सेठ पं० मेवाराम जी ने बतलाया था कि जर्मनी के एक विद्वान ने उनसे कहा है कि जिसने अष्टसहस्री नहीं पढ़ो, वह जैनी नहीं, और अष्टसहस्री को पढ़कर जैनी नहीं हुआ, उसने अष्टसहस्री को समझा नहीं । इसी प्रसंग में मुख्तारजी ने लिखा है, कि-'खेद है कि आज तक ऐसी महत्त्व की कृति का कोई हिन्दी अनुवाद ग्रन्थगौरव के अनुरूप होकर प्रकाशित नहीं हो सका।" ___ काश, यदि आज उपरोक्त सभी महानुभाव होते तो वे इन अनुवादित कृतियों को देखकर कितने प्रसन्न होते यह कल्पना से परे है । पू० माताजी ने अनुवाद में जितना परिश्रम किया है, वह मुझ जैसा प्रत्यक्षदर्शी ही जानता है । रात-दिन एक करके कार्य को पूर्ण किया। माताजी का जैसा स्वास्थ्य है उसमें तो उनकी जगह कोई दूसरा होता, तो एक पंक्ति लिखना भी दुष्कर होता किन्तु माताजी ने सम्पूर्ण लेखन अपने आत्मबल के आधार पर किया । अनुवाद के समय आवश्यक व्यवस्थाएं भी अपर्याप्त थीं। राजस्थान की तीव्र गर्मी-सर्दी से बचाव के साधन न कुछ थे, यहाँ तक कि बिजली के अभाव में लालटेन रखकर भी माताजी ने अपने कार्य को गति दी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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