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अन्त्यमंगल ]
इति परापरगुरुप्रवाहगुणगणसंस्तवस्य मङ्गलस्य प्रसिद्धेर्वयं तु
निवेदयामः,
तृतीय भाग
नाशेषकुनीतिवृत्तिसरित: प्रेक्षावतां शोषिताः, यद्वाचोप्यकलङ्कनीति रुचिरास्तत्त्वार्थसार्थद्युतः । स श्रीस्वामिसमन्तभद्रयतिभृद् भूयाद्विभुर्भानुमान्, विद्यानन्दघन प्रदोऽनघधियां स्याद्वादमार्गाग्रणीः ॥ इत्यप्तमीमांसालंकृतौ दशमः परिच्छेदः ।
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स्वभक्तिवशादेवं
अथवा कर्म कलंकरहित श्री वर्धमान भगवान् को मस्तक झुकाकर नमस्कार करके भव्य जीवों के एक अद्वितीय नेत्र स्वरूप, स्याद्वाद मार्ग का परिपालन करने वाले श्री समंतभद्र स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
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इस प्रकार से परापर गुरु प्रवाह, गुरु परम्परा, गुरु समूह के गुण-गणों की संस्तुति रूप मंगल की प्रसिद्ध है । किंतु हम स्वभक्ति के वश से इस प्रकार से निवेदन करते हैंश्लोकार्थ - जिन्होंने पण्डितों- विद्वानों के अशेष कुनयों के व्यवहार रूपी नदी को सुखा दिया है, जिनके वचन भी तत्त्वार्थ समूह को उद्योतित करने वाले एवं अकलंक निर्दोष या अकलंक देव, न्याय सिद्धान्त से रुचिर - मनोहर हैं । वे विभु भानुमान स्याद्वाद मार्ग के अग्रणी, यतियों के पति, श्री स्वामी समंतभद्राचार्य वर्य निर्दोष बुद्धि वालों के लिये 'विद्यानन्द' रूपी मेघ को प्रदान करने वाले होवें अर्थात् विद्या का अर्थ केवलज्ञान और आनन्द का अर्थ है अनंत सुख । ऐसे अनंतज्ञान और अनंत सुख को प्रदान करने वाले होवें । इस 'विद्यानन्द' पद से आचार्यश्री विद्यानन्द महोदय ने अपना नाम भी ध्वनित कर दिया है ।
इस प्रकार से आप्तमीमांसालंकार में दसवां परिच्छेद पूर्ण हुआ ।
सारांश
इस परिच्छेद में बंध और मोक्ष के कारण का एवं प्रमाण और नय का विचार किया गया है । उसमें सांख्य, यौग और बौद्ध आदिकों की जो बंध और मोक्ष के कारणों की कल्पना है उसको सदोष सिद्ध करके अपने मत के अनुसार सच्ची व्यवस्था सिद्ध की है । और अन्यवादियों के द्वारा परिकल्पित प्रमाणों में दोषों को दिखाकर अपने द्वारा स्वीकृत प्रमाण विशेष के भेद सिद्ध किये हैं ।
उसमें स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और तर्क प्रमाण इन तीनों को पृथक् प्रमाण सिद्ध कर दिया है । बौद्ध के सविकल्प प्रत्यक्ष का समर्थन किया है । केवलज्ञान की युगपत् सर्वावभासन सामर्थ्य बतलाई है । और शेष ज्ञान क्रमवर्ती हैं यह स्पष्ट किया है । एवं सभी प्रमाण प्रत्यक्ष, परोक्ष इन दो प्रमाणों ही अंतर्भूत हो जाते हैं । तथा स्याद्वाद और वास्तविक नयों का लक्षणपूर्वक वर्णन किया गया है ।
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1 विद्यानन्दकृते प्रवादमखिलं निर्मूलयन्त्या भृशं विद्यानन्दकृतेः पदस्यविवृति गूढस्य संक्षेपतः ।
विद्यानन्दकृते व्यरीरचमलं विद्वज्जनालङ्कृते शक्त्याहं हि समन्तभद्रमुनिपो देवागमालङ्कृते ॥१॥ शिष्टीकृत दुर्दष्टिसहस्त्री दृष्टीकृतपरदृष्टिसहस्री । स्पष्टीकुरुतादिष्टसहस्रीमरभाविष्टपमष्टसहस्री ||२|| इति लघु समन्तभद्रकृतिः समाप्तः ।
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