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________________ ५६६ ] अष्टसहस्री [ द० प० कारिका ११४ 'अत्र शास्त्रपरिसमाप्तौ केचिदिदं मङ्गलवचनमनुमन्यन्ते, जयति जगति क्लेशावेशप्रपञ्चहिमांशुमान् , 5 विहतविषमैकान्तध्वान्तप्रमाणनयांशुमान । 'यतिपतिरजो यस्याधृष्यान्मताम्बुनिधेलवान् , 10स्वमतमतयस्तीर्थ्या नाना 11परे समुपासते ॥१॥ श्रीमदकलङ्कदेवाः पुनरिदं वदन्ति, श्रीवर्धमानमकलङ्कम निन्द्यवन्ध पादारविन्दयुगलं प्रणिपत्य मूर्ना । 1'भव्यकलोकनयनं13 परिपालयन्तं, स्याद्वादवम परिणौमि समन्तभद्रम्14 ॥१॥ अब शास्त्र की परिसमाप्ति के अनन्तर कोई (वसुनन्दि आदि) आचार्य यह मंगल वचन मानते हैं श्लोकार्थ-जो जिनेन्द्र भगवान् अघ-जन्म, जरा, मरण से रहित हैं, यतियों के स्वामी, क्लेशावेश के प्रपञ्च रूप हिम को दूर करने के लिये सूर्यस्वरूप विषम एकांत रूप अन्धकार को नष्ट करने वाले प्रमाण और नय रूप किरणों के समूह से सुशोभित हैं, जिनके सिद्धान्त रूपी समुद्र से अधष्यकणों के एक-एक कण-धर्म को अपना-अपना सिद्धान्त बना लेने वाले, भिन्न-भिन्न तीर्थ का अनुशरण करने वाले अनेक अन्यमतावलंम्बी जन अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार उन कणों की उपासना कर रहे हैं, ऐसे वे जिनेन्द्र भगवान् सदा इस जगत में जयशील होवें ॥१॥ भावार्थ-यहां श्लोक के प्रथम उत्थानिका के केचित्' शब्द से वसुनन्दि आचार्य को ग्रहण करना चाहिये क्योंकि उन्होंने ही अपनी वृत्ति में यह श्लोक लिखा है । "शास्त्र परिसमाप्तौ मंगलवचनं" इस वाक्य से और वसुनन्दि आचार्य के वचन से यह भी श्लोक श्री समंतभद्र भगवान् का किया हुआ ही है ऐसा ध्वनिगत होता है और इस प्रकार से भगवान् श्री समंतभद्र स्वामी के द्वारा बनाई हुई कारिकायें एक सौ पन्द्रह (११५) हैं यह बात सिद्ध हो जाती है। किन्तु "केचिदिदं अनुमन्यन्ते" इस शब्द से 'उदासीनता' से हमने नहीं बनाई है यह अर्थ ध्वनित हो जाता है। और इस प्रकार से श्री विद्यानन्द स्वामी के मत से एक सौ चौदह कारिका प्रमाण ही ग्रन्थ है ऐसा भी कहा जा सकता है। श्लोकार्थ-अनिंद्य-उत्तम पुरुषों से वंदनीय है चरण कमल जिनके ऐसे, अकलंक-निर्दोष 1 देवागमे । दि० प्र० । 2 संसारदुःख । दि० प्र० । 3 सम्बन्ध: । दि० प्र०। 4 हिमस्यादित्यः । दि० प्र० । परजेतूमशक्यात् । ब्या०प्र० । 5 विषमाश्च त एकान्ताश्च विषयकान्तास्त एव ध्वान्तानिविहितानि विषमैकान्तध्वान्तानि ये प्रमाणनयांशुभिस्ते विद्यन्ते यस्येति । दि० प्र०। 6 प्रमाणे च नयाश्च त एवांशवः किरणाः । दि०प्र०17 अवाच्यात् । ब्या०प्र०। 8 अवगाहयितुमशक्यत्वात् दुर्लन्ध्यात् शासनसमूद्रान्निर्गता न सर्वथा सन्नित्याद्यभिलाप्यादिनयांशानकै परे सौगतादयः समाश्रयन्तीति । दि० प्र० 1 9 लवलेशकणा अणवस्तान् । ब्या०प्र० । 10 तीर्थे लवाः । ब्या० प्र० । 11 नैयायिका दयः। ब्या०प्र०। 12 मुख्यः । ब्या०प्र०।13 आलोकार्थनयनम् । ब्या०प्र०। 14 सर्वत्र मनोहरः । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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