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________________ अष्टसहस्री । द०प० कारिका ११४ श्रीमदकलङ्कशशधरकुलविद्यानन्दसंभवा भूयात् । गुरुमीमांसालंकृतिरष्टसहस्री सतामध्ये ॥ वीरसेनाख्यमोक्षगे चारुगुणानय॑रत्नसिन्धुगिरिसततम् । सारतरात्मध्यानगे मारमदाम्भोदपवनगिगिह्वरायितु ॥ कष्टसहस्रीसिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्था (नर्धा) ॥ इति ग्रन्थः समाप्तः श्लोकार्थ-जो श्रीमान अकलंक रूपी चन्द्रमा के कुल से विद्या और आनन्द को उत्पन्न करने वाली है अथवा जो अकलंक देव से रचित अष्टशती रूप से एवं विद्यानन्द आचार्य से रचित अष्टसहस्री रूप से उत्पन्न हुई है । तथा गुरु-भगवान की मीमांसा परीक्षा की अलंकार टीका रूप है अथवा गुरु श्री समंतभद्रस्वामी के द्वारा रचित आप्त मीमांसा के ऊपर रचित अलंकार टीका रूप है। ऐसी यह अष्टसहस्री सज्जन पुरुषों की बुद्धि ऋद्धि के लिये होवे । श्लोकार्थ-जो कष्ट सहस्री रूप से सिद्ध है अर्थात् सहस्रों कष्ट झेलकर जिसका निर्माण कार्य हुआ है, एवं कुमार सेन मुनि की सूक्तियों से वर्द्धमान-वृद्धिंगत अर्थ वाली है अथवा जो श्रेष्ठ है वह अष्टसहस्री जिनवाणी भारती हमेशा ही हमारे अभीष्ट सहस्री-सहस्रों मनोरथों को पुष्ट करेसफल करे। जिनभक्ती अनुराग से, मिटे अशुभ गत राग । प्रगटे ज्ञान विरागमय, निश्चय शुद्ध स्वराग। इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्यकृत "आप्तमीमांसालंकृति ' अपरनाम "अष्टसहस्री" ग्रंथ में आर्यिका ज्ञानमती कृत भाषा अनुवाद, पद्यानुवाद, भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश सहित इस "स्याद्वादचितामणि" नामक टीका में यह दशम परिच्छेद पूर्ण हुआ। यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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