________________
स्याद्वाद की व्यवस्था ] तृतीय भाग
[ ५८६ भिप्रेत्यहानाभावादुपेक्षामात्रसिद्धः । तद्विपरीतानां तु किंचिद्विधेयं, तच्च नास्तित्वादिभिरविरुद्धं, प्रतिषेध्यैरीप्सितार्थाङ्गत्वात्, तस्य तद्विरोधे 'स्वयमीप्सितार्थहेतुत्वासम्भवात्, विधिप्रतिषेधयोरन्योन्याविनाभावलक्षणत्वात् स्वार्थज्ञानवत् । न हि स्वार्थज्ञानयोरन्योन्याविनाभावोऽसिद्धः, स्वज्ञानमन्तरेणार्थज्ञानानुपपत्तेः कुटवत् स्वज्ञाने एवार्थज्ञानघटनातु सर्वज्ञज्ञानवत् । नहीश्वरस्यापि स्वज्ञानाभावः, सर्वज्ञत्वविरोधात् स्वसंविदितज्ञानाभ्युपगमस्यावश्यंभावात् । नापि विषयाकारज्ञानमन्तरेण स्वज्ञानं, 'स्वाकारस्यार्थस्य परिच्छेद्यत्वविरोधात् स्वज्ञानाभावप्रसङ्गात् । तदनवद्यमुदाहरणं प्रकृतं साधयति । यथैव च विधेयं प्रतिषेध्याविरोधि सिद्धमीप्सितार्थाङ्ग तथैवादेयहेयत्वं वस्तुनो, 'नान्यथा विधेयकान्ते कस्यचिद्धेयत्वविरोधात् प्रतिषेध्यकान्ते कस्यचिदादेयत्वविरोधात् । न हि सर्वथा विधेयमेव सर्वथा प्रतिषेध्यं स्याद्वा
मात्र सिद्ध है। उनसे विपरीत मनुष्यों के लिये ही कुछ विधेय है। और वह नास्तित्वादि से अविरुद्ध है। क्योंकि प्रतिषेध्य-नास्तित्वादि के साथ में ईप्सित अर्थ का अंग है। यदि वह अस्तित्व-नास्तित्व धर्म से विरोध को प्राप्त हो जावें तो स्वयं ईप्सितार्थ हेतु असंभव हो जायेगा। क्योंकि विधि और प्रतिषेध परस्पर में अविनाभाव लक्षण वाले हैं जैसे कि स्वार्थ ज्ञान।
स्व और अर्थ इन दोनों के ज्ञान में परस्पर में अविनाभाव असिद्ध हो ऐसा भी नहीं है। क्योंकि स्वज्ञान के बिना पदार्थ का ज्ञान भी असम्भव है। जैसे घट को स्वज्ञान के अभाव में अर्थज्ञान नहीं हो सकता है। अतः स्वज्ञान के होने पर ही अर्थ ज्ञान घटित होता है, सर्वज्ञ ज्ञान के समान।
आप योग ऐसा भी नहीं कह सकते हैं कि 'ईश्वर में स्वज्ञान का अभाव है' अन्यथा वह ईश्वर सर्वज्ञ ही नहीं रहेगा। अतएव उस ईश्वर में स्वसंविदित ज्ञान को स्वीकार करना अवश्यंभावी है। विषयाकार ज्ञान के बिना भी स्वज्ञान हो जावें ऐसा भी नहीं है । अन्यथा स्वाकार अर्थ परिच्छेद्यज्ञेय ही नहीं हो सकेगा, पुनः स्वज्ञान के अभाव का ही प्रसंग आ जायेगा। इसलिये यह उदाहरण निर्दोष है और प्रकृत अर्थ को सिद्ध करता है।
जिस प्रकार से विधेय प्रतिषेध्य के साथ अविनाभावी होकर ही ईप्सित अर्थ के प्रति अंगसाधन प्रसिद्ध है, उसी प्रकार से वस्तु का आदेय और हेयत्व भी सिद्ध है, अन्यथा नहीं। क्योंकि विधेय को एकांत से स्वीकार करने पर किसी को भी हेयत्व का विरोध हो जावेगा अर्थात् कोई भी वस्तु हेय नहीं बन सकेगी एवं प्रतिषेध्यकांत में भी कोई वस्तु आदेय नहीं होगी।
1 निरभिप्रायादेव । ब्या० प्र० । 2 प्रयोजन । ब्या० प्र०। 3 अर्थ । दि० प्र० । 4 प्रमेयभूतस्य । दि० प्र० । 5 अपरार्द्ध व्याख्याति । दि० प्र० । 6 वस्तुन आदेयत्वं पक्षः हेयत्वेनाविनाभावि भवतीति साध्यमीप्सितार्थागत्वात यथाविधेयं प्रतिषेध्याविनाभावि स्यात् । दि० प्र०। 7 अन्योन्याविनाभावप्रकारेण । ब्या० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org