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अष्टसहस्री
[ ८० ५० कारिका ११३ विधेयमीप्सितार्थाङ्गप्रतिषेध्याविरोधि यत् । 'तथैवादेय हेयत्वमिति स्याद्वादसंस्थितिः ॥११३॥
[ स्याद्वादस्य सम्यक् व्यवस्था स्पष्टयंति जैनाचार्याः। ] 'अस्तीत्यादि विधेयमभिप्रेत्य विधानात्, सर्वत्रतावन्मात्रलक्षणत्वात् विधेयत्वस्य । नहि परिवृढ भयादेरनभिप्रेतस्यापि विधाने विधेयत्वं युक्तं, वीतरागस्यापि 'तत्कृतबन्धप्रसङ्गाज्जनापवादानुषङ्गाच्च । नाप्यभिप्रेतस्याप्यविधाने विधेयत्वं, तद्योग्यतामात्रसिद्धरन्यथा विधानानर्थक्यात् । 'तत एवाभिप्रायशून्यानां किंचिदप्यकुर्वतां न किंचिद्विधेयं नापि हेयम
जो विधेय है वह अपने, प्रतिषेध्य-नास्ति सह अविरोधी। इच्छित अर्थों का साधन वह, स्याद्वाद उभयात्मक ही ।। वैसे ही आदेय हेय है, वस्तू का सर्वथा नहीं।
इस प्रकार से स्याद्वाद की, सम्यक् स्थिति घटित हुई ।।११३।। कारिकार्थ–'अस्ति' इत्यादि शब्द से वाच्य विधेय वाक्य ही ईप्सित अर्थक्रिया के प्रति कारण है और वह प्रतिषेध्य-नास्तित्वादि धर्म से अविरोधी-अविनाभावी है। एवं उसी प्रकार से ही आदेय और हेय हैं इस प्रकार से स्याद्वाद की सम्यक् व्यवस्था हो जाती है ।।११३॥
- [जैनाचार्य स्याद्वाद की सम्यक् व्यवस्था को स्पष्ट करते हैं। ]
"अस्ति" इत्यादि विधेय हैं क्योंकि अभिप्रेत करके-मन में दृष्ट करके ही विधान किया जाता है। सभी जगह विधेय का इतना मात्र ही लक्षण माना गया है। राजा के भयादि से अनभिप्रेत का भी विधान मान लेने पर भी उसे 'विधेय' कहना युक्त नहीं है। अन्यथा वीतराग भगवान को भी तत्कृत-बंध का प्रसंग आ जायेगा।
अभिप्रेत का भी विधान न करने पर वह अभिधेय हो गया ऐसा भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि उसमें उस प्रकार की योग्यता मात्र की सिद्धि है, अन्यथा उसका विधान ही अनर्थक हो जायेगा।
इसलिये कुछ भी न करते हुए एवं अभिप्राय से शून्य मनुष्यों के लिये कुछ भी विधेय नहीं है। एवं हेय भी कुछ भी नहीं है। क्योंकि अभिप्रेत्य और त्याग का अभाव होने से उनके उपेक्षा
1 यथैव । इति पा० । दि० प्र० । 2 स्रगादि । ब्या० प्र० । 3 कण्टकादि । ब्या० प्र०। 4 शब्देन वाच्यम् । ब्या० प्र०। 5 राजभयादेः । ब्या० प्र०। 6 आदिशब्देन चौरादिभयं ग्राह्यम् । का। मातृग्रहणादिकस्य । ब्या० प्र० । 7 अन्यथा । दि० प्र०। 8 अभिप्रेतमात्रत्वेन विधेयत्वसिद्धौ । ब्या० प्र०। 9 अभिप्रेत्यविधानादितिशब्दयोमध्य एकैकाभावे दोष प्रदर्श्य उभयाभावं प्रदर्शयति तत एवेति । दि० प्र०। 10 अभिप्रायपूर्वकविधानाभावात् हेयत्वमेव सूक्तं भवतीत्याशंकायामिदं वचनम् । दि० प्र० ।
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