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________________ स्यात्कार का लणक्ष ] तृतीय भाग [ ५८७ मिथ्याभिनिवेशादिति चेत्, न 'चैतत्तस्य प्रतिपादक मिथ्याविकल्पहेतुत्वाद्वयलीकवचनवत् । ततो नान्यापोहः शब्दार्थः सिद्ध्यति, येन तत्र प्रवर्तमानास्तीत्यादिसामान्यवाग् मृषैव न स्यात् । ततः स्यात्कारः सत्यलाञ्छनो मन्तव्यः स्वाभिप्रेतार्थविशेषप्राप्तेः । सर्वो हि प्रवर्तमानः कुतश्चिद्वचनात् 'क्वचित्स्वरूपादिना सन्तमभिप्रेतमर्थं प्राप्नोति, न "पररूपादिनानभिप्रेतं, 'प्रवृत्तिवैयर्थ्यात्, स्वरूपेणेव पररूपेणापि सत्त्वे सर्वस्याभिप्रेतत्वप्रसङ्गात्, परात्मनेव स्वात्मनाप्यसत्त्वे सर्वस्याभिप्रेतत्वाभावात् 'स्वयमभिप्रेतस्याप्यनभिप्रेतत्वप्रसक्तेश्च । ततः 12स्याद्वाद एव सत्यलाञ्छनो न वादान्तरमित्यतिशाययति भगवान् समन्तभद्रस्वामी। बौद्ध-उसका विकल्प ही अन्यापोह हो जावे क्योंकि वचनों का अभिप्राय मिथ्या है। जैन-तब तो 'अस्ति' इत्यादि वचन उस अपने अर्थ के प्रतिपादक नहीं हो सकेंगे क्योंकि मिथ्या विकल्प के हेतु हैं जैसे कि असत्य वचन अपने अर्थ का प्रतिपादन नहीं कर सकते हैं । अर्थात् 'अस्ति' यह वचन अन्यापोह के विकल्प का उत्पादक ही है न कि उस अर्थ का प्रतिपादक । और ऐसा मानने से तो वे वचन मिथ्या ही सिद्ध होते हैं। ___इसलिये शब्द का अर्थ अन्यापोह है यह बात सिद्ध नहीं होती है। कि जिससे उसमें प्रवर्तमान 'अस्ति' इत्यादि सामान्य वचन असत्य ही न हो जावे । अर्थात् असत्य ही हो जाते हैं । इसलिये स्यात्कार ही सत्य लाञ्छन है ऐसा मानना चाहिये, क्योंकि सभी को अपने-अपने अभिप्रेत अर्थ विशेष की प्राप्ति होती है । प्रवृत्ति करने वाले सभी मनुष्य किन्हीं वचनों से कहीं पर स्वरूपादि से विद्यमान अभिप्रेत अर्थ को प्राप्त करते हैं। किन्तु पर रूपादि से अनभिप्रेत अर्थ को प्राप्त नहीं करते हैं। अर्थात् जानने वाले को स्वरूपादि से सत् ही वस्तु अभिप्रेत होती है, किन्तु पर रूपादि से असत् वस्तु अभिप्रेत नहीं होती है एवं पररूपादि से अनभिप्रेत अर्थ को प्रवर्तक जन प्राप्त नहीं करते हैं । अन्यथा प्रवृत्ति करना ही व्यर्थ हो जायेगा। स्वरूप के समान पर रूप से भी किसी का सत्त्व स्वीकार करने पर तो सभी वस्तु अभिप्रेत हो जायेंगी तथा पररूप के समान ही स्वरूपादि से भी असत्त्व मानने पर तो सभी में अभिप्रेतपने का अभाव हो जाने से स्वयं को अभिप्रेत वस्तु भी अनभिप्रेत हो जावेंगी। किन्तु ऐसा तो है नहीं। इसलिये स्याद्वाद ही सत्य लाञ्छन हैं किन्तु अन्य वाद नहीं है इस प्रकार से भगवान् श्री समंतभद्र स्वामी अतिशय रूप से सिद्ध करते हैं । 1 एतत्सौगतस्यान्यापोहात्मकं वचः तस्यार्थस्य कथक न मिथ्या विकल्पकारणात । दि० प्र० । 2 विकल्पो नाम संश्रय इति वचनादस्तीति वाक्यमन्यापोहस्य विकल्पस्योत्पादकमेव नन प्रतिपादकमित्यर्थः । दि० प्र०। 3 अभावे । दि० प्र०। 4 सदसदात्मकः । दि० प्र०। 5 वस्तुन्यर्थे । सन्तम् । दि० प्र०। 6 अनभिप्रेतमर्थं न प्राप्नोति स्वरूपादिना सन् प्रतिपत्तुरभिप्रेतस्ततः पररूपादिना सन् तदनभिप्रेतः । दि० प्र० । 7 सर्वत्र सद्भावप्रसंगात् । दि० प्र०। 8 अनिष्टत्वात् । दि० प्र० । १ प्रतिपत्त्रा। ब्या० प्र०। 10 अर्थस्य । ब्या०प्र०। 11 मन्तव्यो यतः । दि० प्र०। 12 अर्हन्मतम्। दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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