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________________ ५६० ] अष्टसहस्री द०प० कारिका ११४ दिनोभिप्रेतं, 'येनोभयात्मकत्वे एवादेयहेयत्वं न स्यात्, कथंचिद्विधिप्रतिषेधयोस्तादात्म्योपगमात् । तद्विधेयप्रतिषेध्यात्मविशेषात् स्याद्वादः प्रक्रियते सप्तभङ्गीसमाश्रयात् । यथैव हि विधेयोस्तित्वादिविशेषः, 'स्वात्मना विधेयो न प्रतिषेध्यात्मनेति स्याद्विधेयः सिद्धः । प्रतिषेध्यात्मविशेषश्च विधेयात्मना प्रतिषेध्यो न प्रतिषेध्यात्मना इति स्यात्प्रतिषेध्य स्यादप्रतिषेव्योन्यथा व्याघातात् । तथैव जीवाद्यर्थः स्याद्विधेयः स्यात्प्रतिषेध्यः । इति सप्तभङ्गीसमाश्रयात् स्याद्वादस्य प्रक्रियमाणस्य सम्यक स्थितिः, सर्वत्र युक्तिशास्त्राविरोधात, भावकान्तादिष्वेव तद्विरोधसमर्थनात् । ततो 'भगवन्ननवद्यमध्यवसितमस्माभिः, स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वादिति । तदेवं प्रारब्धनिर्वहणमात्मनस्तत्फलं च सूरयः प्रकाशयन्ति, सर्वथा विधेय ही अथवा प्रतिषेध्य ही वस्तु स्याद्वादियों को इष्ट नहीं है। कि जिससे उभयात्मक में ही आदेय और हेयपना न होवे, अर्थात् उभयात्मक में ही आदेय-हेयत्व घटित होता है। क्योंकि विधि और प्रतिषेध में कथंचित् तादात्म्य स्वीकार किया गया है। इसलिये विधेय प्रतिषेध्य स्वरूप विशेष का आश्रय लेकर ही स्याद्वाद प्रक्रिया सप्तभंगी का आश्रय लेती है। जिस प्रकार से अस्तित्वादि विशेष विधेय है वे स्वस्वरूप से ही विधेय है किन्तु प्रतिवेध्य रूप से विधेय नहीं है। इसलिये कथंचित विधेय सिद्ध है प्रतिवेध्य स्वरूप विशेष भी विधेय रूप से प्रतिषेध्य है न कि प्रतिषेध्य स्वरूप से प्रतिषेध्य है इसलिये कथंचित् प्रतिषेध्य है, कथंचित अप्रतिषेध्य है। अन्यथा बाधा आ जाती है । उसी प्रकार से जीवादि पदार्थ भी कथचित् विधेय हैं और कथंचित् प्रतिषेध्य हैं इस प्रकार से सप्यभंगी का आश्रय लेने से स्याद्वाद प्रक्रिया की सम्यक् व्यवस्था हो जाती है क्योंकि सभी जगह युक्ति और और आगम से अविरोध है। भावैकांत आदि में ही वह विरोध आता है ऐसा पहले समर्पित कर दिया है । इसलिये हे भगवान् ! हमने निर्दोष रूप से निश्चित किया है कि वह निर्दोष आप ही हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और आगम से अविरोधी हैं। उत्थानिका-कारिका ११४ की उत्थानिका अब अगली कारिका में प्रारम्भ किये हुये का निर्वहण और अपने को उसका फल आचार्य वर्य प्रकाशित करते हैं 1 नव केन । दि० प्र०। 2 सिद्धः । ब्या० प्र० । 3 स्वरूपेण । दि० प्र० । 4 विधेयात्मना अप्रतिषेध्य प्रतिषेद्धयात्मना प्रतिषेध्यो भवति चेत्तदा प्रवृत्तिनिवृत्तेरभावस्तदभावे जगति सर्वकार्यस्य व्याघातः स्यात् । दि० प्र० । 5 अनेन प्रकारेण । ब्या०प्र०। 6 धर्म मिणि च । ब्या०प्र०। 7 समन्तभद्रस्वामिभिः । ब्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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