SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 660
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नय का लक्षण ] तृतीय भाग [ ५८१ वस्तुतत्त्वं सर्वथा 'तदर्थक्रियाऽसंभवाद् गगनकुसुमादिवदिति । अत्रापि विवादापन्न वस्तुतत्त्वं मि पराध्यारोपितैकान्तत्वेन प्रतिषेध्यं, क्वचित् सत 'इवारोपितस्यापि प्रतिषेध्यत्वसिद्धेरन्यथा 'कस्यचित्परमतप्रतिषेधायोगात्, सत एव संज्ञिनः प्रतिषेधो नासतः इत्यस्याप्यविरोधात्, सम्यगेकान्ते प्रसिद्धस्य रूपस्य सापेक्षस्य निरपेक्षत्वेनारोपितस्य 'क्वचित्प्रतिषेधात्, • सर्वथा 'तदर्थक्रियाभावात्' इति हेतुापकानुपलब्धिरूपत्वात् । गगनकुसुमादिवदित्युदा. हरणं साध्यसाधनावैकल्याद्गगनकुसुमादेरत्यन्ताभावस्य परैरेकान्तवस्तुरूपत्वसर्वथार्थक्रियाकारित्वयोरनिष्टः। इतीदमपि श्रेयः साधनवाक्यम् । विशेषेण पुनर्नास्ति सदेकान्तः, सर्व उसी प्रकार से, 'कोई भी वस्तु तत्त्व एकांत रूप नहीं है । क्योंकि सर्वथा उसमें अर्थ किया असंभव है जैसे आकाश के पुष्पादि।' यहां पर भी विवादापन्न वस्तुतत्त्व धर्मी है । वह पर के द्वारा अध्यारोपित एकांत रूप से प्रतिषेध्य है, यह साध्य है । कहीं पर सत् के समान आरोपित में भी प्रतिषेध्यपना सिद्ध है । अन्यथा नहीं तो कोई भी पर मत का निषेध ही नहीं कर सकेगा। सत् रूप ही संज्ञी का प्रतिषेध होता है, असत् का नहीं। इस प्रकार के कथन में भी विरोध नहीं है। क्योंकि हमारे द्वारा मान्य सुनय रूप सम्यक् एकांत में सापेक्ष रूप प्रसिद्ध है उसमें कहीं पर निरपेक्ष रूप से आरोपित प्रतिषेध किया जाता है। इसलिये “सर्वथातदर्थ क्रियाभावात्" यह समीचीन हेतु है क्योंकि व्यापकानुपलब्धि रूप है एवं "गगनकुसुमादिवत्" यह उदाहरण भी समीचीन है। क्योंकि साध्य साधन से विकल नहीं है । अत्यन्ताभाव रूप गगनकुसुमादि में एकांत से वस्तुरूपता और सर्वथा अर्थक्रियाकारित्व ये दोनों बातें पर के द्वारा भी अनिष्ट हैं। इसलिये भी यह साधन वाक्य एकांत का निवारण करने वाला होने से श्रेयस्कर समीचीन है। किन्तु विशेष रूप से सदेकांत है ही नहीं अन्यथा सभी व्यापार विरुद्ध हो जावेगा । अर्थात सभी कारकों का जो जन्य-जनक लक्षण व्यापार है वह विरुद्ध हो जावेगा। जैसे असदेकांत को मानने में सभी व्यापार विरुद्ध हैं। इसी कथन से विशेष रीति से "सभी अनेकांतात्मक एवं परिणामी स्वरूप हैं क्योंकि वे अर्थक्रियाकारी हैं। प्रधान के समान" इत्यादि कथन दिखलाया गया है । अर्थात् 1 तस्यकान्तस्य वस्तुनः । दि० प्र० । 2 स्याद्वादिनां मते एकान्तं वस्तुतत्त्वं यद्यपि नास्ति तथापि इतरकान्तवादिभिरारोपितं तस्यैव सतः प्रतिषेध्यत्वं साध्यते स्याद्वादिभिर्ननु परमार्थभूतस्य = अन्यथा आरोपितस्य प्रतिषेधो न घटते चेत्तदा कस्यचिद्वादिन: परमतनिषेधो न संभवति । दि० प्र० । 3 कस्यचिद्वस्तुतत्त्वे । न केवलं तत्त्वतो विद्यमानस्य । दि० प्र० 1 4 वादिनः । दि० प्र० । 5 वस्तुतत्त्वे । ब्या० प्र० । 6 क्रमयोगपद्यप्रकारेण । ब्या० प्र० । 7 एकान्त । ब्या० प्र० । 8 इति हेतुसिद्धः कुतो व्यापकस्य किञ्चिद्वस्तुतत्त्वमेकान्तं नास्तीत्येतल्लक्षणस्त साध्यस्यानपलब्धौ अदर्शने सर्वथा तदर्थक्रियाभावादिति साधनस्याप्यनुपलब्धिरूपत्वं घटते यतः। दि०प्र० । 9 एकान्तवस्त्वपेक्षया व्यापकत्वमर्थक्रियायाः। दि० प्र०। 10 अनङ्गीकारात् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy