SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 661
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८२ ] अष्टसहस्री [ द० प० कारिका १०६ व्यापारविरोधप्रसङ्गादसदेकान्तवत् । एतेन विशेषतोनेकान्तात्मकः परिणाम्यात्मार्थक्रियाकारित्वात् प्रधानवदित्याद्युपदर्शितम् । इति विधिना प्रतिषेधेन वा वस्तुतत्त्वं 'नियम्येत तथान्यथा च तस्यावश्यंभावसमर्थनात् । अन्यथा "तद्विशिष्टमर्थतत्त्वं विशेष्यमेव न स्याद्विधेः प्रतिषेधरहितस्य प्रतिषेधस्य च विधिरहितस्य 'विशेषणत्वनिराकरणात् तदुभयरहितस्य च विशेष्यत्वविरोधात् खपुष्पवत् । इत्यनेन विधिप्रतिषेधयोर्गुणप्रधानभावेन सदसदादिवाक्येषु वृत्तिरिति 'लक्षयति । ततो न तेषां पौनरुक्तयं, येन सप्तभङ्गीविधिरनवद्यो न स्यात् । विधिनैव वस्तुतत्त्वं वाक्यं नियमयति सर्वथेत्येकान्ते दूषणमुपदर्शयन्ति,यहाँ अनुमान वाक्य में सभी अनेकांतवादियों के प्रति वस्तु को अनेकांतात्मक सिद्ध किया है और सांख्य के प्रति वस्तु को परिणामी सिद्ध किया है। इस प्रकार से विधि अथवा प्रतिषेध के द्वारा वस्तु तत्त्व निश्चित की जाती है। क्योंकि वह वस्तु तथा विधि रूप से और अन्यथा निषेध रूप से अवश्यंभावी है ऐसा समर्थन किया गया है। अन्यथा-यदि ऐसा न मानों तो केवल विधि रूप से या केवल प्रतिषेध रूप से विशिष्ट अर्थ तत्त्व विशेष ही नहीं हो सकेगा। क्योंकि प्रतिषेध रहित विधि और विधि रहित प्रतिषेध दोनों के ही विशेषण का निराकरण हो जाता है । अर्थात् दोनों ही विशेषण से रहित हो जाते हैं । तथा दोनों से रहित वस्तु विशेष्य नहीं बन सकती है । आकाश पुष्प के समान । इसी कथन से विधि और प्रतिषेध गौण, प्रधान भाव से सत् असत् आदि वाक्यों में रहते हैं, ऐसा भी श्री समंतभद्र स्वामी बतलाते हैं। इसलिये उन द्वितीयादि नय भिंगों में पुनरुक्ति दोष का प्रसंग नहीं आता है। कि जिससे सप्तभंगी विधि निर्दोष सिद्ध न हो सके अर्थात् सप्तभंगी विधि निर्दोष ही सिद्ध हो जाती है। उत्थानिका-किसी का कहना है कि वाक्य सर्वथा विधि के द्वारा ही वस्तु तत्त्व का निश्चय कराते हैं, इस प्रकार की एकांत मान्यता में आचार्यवर्य दूषण दिखाते हैं 1 विरोधप्रसंगसमर्थनेन । सदेकान्तादिनिराकरणद्वारेण । दि० प्र० । 2 विशेषे विधिवाक्यम् । दि०प्र० । 3 नियतं क्रियेत । दि. प्र० । 4 अन्यथाविधेः प्रतिषेधस्यान्योन्यं सापेक्षकत्वाभावे विधिप्रतिषेधविशिष्टं वस्तूतत्त्वं यदि प्रतिपाद्यते विशेष्यमेव तदा न भवेत् किन्तु शन्यम् । दि० प्र० । 5 तथापि विशेष्यत्वं कुतो न स्यादित्युक्ते आह । दि० प्र०। 6 श्लोकेन । ब्या० प्र० । 7 सदिति वाक्ये विधेः प्रधानभावेन वृत्तिनिषेधस्य गुणभावेन वृतिरसदिति वाक्ये तद्विपर्यय इत्यनेनानेकान्तात्मकार्थस्यास्तीति च वाक्येन नियमयितुमशक्यत्वात् प्रतिनियतविषये अस्तित्वादी कथं प्रवृत्तिरिति पातनिकायामुक्तञ्चोद्यं निरस्तं गुणप्रधानभावविवक्षायामस्तीति नास्तीति च वक्तुं सुशकत्वात् । दि० प्र०। 8 अस्तीति वचनेन नास्तीति वचनेन प्रत्येकमस्तिनास्तित्वयोः कथनात्पीनरुक्त्यम् । दि० प्र०।१ स्वरूपेणेव पररूपेणापि । दि०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy