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अष्टसहस्री
[ अनेकांतात्मकोऽर्थः विधिना वाक्येन प्रतिषेधवाक्येन वा निश्चीयते अन्यथा न । ] यत्सत्तत्सर्वमनेकान्तात्मकमर्थक्रियाकारित्वात् स्वविषयाकार संवित्तिवत् । यद्विवा - दाध्यासितं वस्तु तत्सर्वं धर्मि प्रत्येयम्, अप्रसिद्धं साध्यमिति वचनात् तस्यानेकान्तात्मकत्वेन विवादाध्यासितत्वात् साध्यत्वोपपत्तेः । अर्थक्रियाकारित्वादिति हेतुरसिद्धत्वादिदोषानाश्रयत्वात् प्रधानैकलक्षणयोगाच्च । 2 स्वविषयाकारसंवित्तिवदित्युदाहरणं, तथा वादिप्रतिवादिसिद्धत्वात् । – सौगतस्य चित्राका रैक संवेदनोपगमात्, यौगानामीश्वरज्ञानस्य स्वार्थसंवेदिनो मेचकज्ञानत्वापगमात् कापिलानामपि स्वरूपबुद्ध्यध्यवसितार्थ संवेदिनः स्वसंवेदनस्येष्टेः, श्रोत्रियाणामपि फलज्ञानस्य स्वसंवेदिनोर्थपरिच्छित्तिरूपस्य प्रसिद्धेः, चार्वाकस्यापि प्रत्यक्षस्य वेदनस्य 'स्वार्थपरिच्छेदिनोभ्युपगमनीयत्वात् 'सम्यगिदं साधनवाक्यम् । तथा न किंचिदेकान्तं
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[ अनेकांतात्मक अर्थ विधि वाक्य अथवा प्रतिषेध वाक्य के द्वारा निश्चित किया जाता है, अन्यथा नहीं । ]
"जो सत् है वह सभी अनेकांतात्मक है क्योंकि अर्थ क्रियाकारी है । जैसे स्वविषयाकार संवित्ति ।" अर्थात् जैसे तद्विषयाकार को ग्रहण करने वाली संवित्ति प्रमाण नय के भेद से अनेक भेद वाली है । उसी प्रकार से उसका विषय भी अनेक प्रकार का है ।" जो विवादापन्न वस्तु है वह सभी धर्मी है ऐसा समझना चाहिये । क्योंकि साध्य अप्रसिद्ध होता है । ऐसा वचन है वह अनेकांतात्मक रूप से विवाद की कोटि में आया है अत: साध्य रूप बन जाता है । "अर्थक्रियाकारित्वात्' यह हेतु असिद्धादि दोष से अनाश्रित है । तथा प्रधान एक-अन्यथानुपपत्ति लक्षण वाला है । 'स्वविषयाकार संवित्तिवत्' यह उदाहरण है । क्योंकि उस प्रकार से वह वादी प्रतिवादी दोनों को ही सिद्ध है । अर्थात् स्व और विषय इन दोनों के आकार को ग्रहण करने वाला जो ज्ञान है वह यहां उदाहरण में लिया है क्योंकि ज्ञान स्व और पर दोनों को विषय करने वाला होता है । उसी का सष्टीकरण करते हैं ।
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द० प० कारिका १०६
सौगत ने चित्राकार एक संवेदन स्वीकार किया है। योग ने भी ईश्वर के ज्ञान को स्व और अर्थ का संवेदी, मेचक ज्ञान रूप स्वीकार किया है । तथा सांख्यों ने भी स्वरूप और बुद्धि से अध्यवसित अर्थ को जानने वाला एक संवेदन माना है । मीमांसक भी फल ज्ञान को स्वसंवेदी, अर्थ की परिच्छित्त रूप मानते हैं । चार्वाक भी प्रत्यक्ष ज्ञान को स्वार्थ परिच्छेदी करते ही हैं । इस प्रकार से सभी के ही मत में ज्ञान को अनेक विषयक होने से अनेकार रूप मान्य किया है । इसलिये हमारा अनुमान वाक्य समीचीन ही है ।
1 अप्रसिद्धस्य साध्यस्य । दि० प्र० । 2 समीचीनम् । दि० प्र० । 3 सिद्धत्वात् सोगतत्वात्सोगतस्य । इति पा० । दि० प्र० । 4 स्वार्थ संवेदन लक्षण | ब्या० प्र० । 5 ततश्च । व्या० प्र० । 6 निषेधद्वारेण वक्ष्यमाणमनुमानवाक्यम् । दि० प्र० ।
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