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________________ नय का लक्षण ] तृतीय भाग [ ५७५ [ प्रमाणनयदुर्णयानां लक्षणं कुर्वति जैनाचार्याः । ] ततः स्याद्वादेत्यादिनानुमितमनेकान्तात्मकमर्थतत्त्वमादर्शयति । तदेव हि 'स्याद्वादप्रविभक्तोर्थः, प्राधान्यात्-सर्वाङ्गव्यापित्वात्। तस्य विशेषो नित्यत्वादिः पृथक् पृथक् । 'तस्य 'प्रतिपादको नयः । इति नयसामान्यलक्षणमप्यनेन दशितमिति व्याख्यायते । तथा चोक्तम्,'अर्थस्यानेकरूपस्य धी: प्रमाणं, तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः ॥ इति तदनेकान्तप्रतिपत्तिः 'प्रमाणमेकधर्मप्रतिपत्तिर्नयस्तत्प्रत्यनीकप्रतिक्षेपो दुर्णयः, केवलविपक्षविरोधदर्शनेन 'स्वपक्षाभिनिवेशात् । किं पुनर्वस्तु स्यादित्याहुः [ प्रमाण, नय और दुर्णयों का आचार्य लक्षण करते हैं। ] इसीलिये स्याद्वाद इत्यादि वाक्य से अनुमित, अनेकांतात्मक, अर्थ तत्त्व ही प्रकाशित करते हैं, वही स्याद्वाद से प्रविभक्त अर्थ है । क्योंकि वही प्रधान है, सर्वांग व्यापी है। उसके विशेष नित्यत्व आदि धर्म पृथक्-पृथक् हैं, उन्हीं का प्रतिपादन करने वाला नय है । इसी कथन से 'नय सामान्य का लक्षण भी दिखला दिया गया है' ऐसा व्याख्यान किया जाता है । तथा च उक्तं-और उसी प्रकार से कहा भी है। श्लोकार्थ-अनेक रूप वाले अर्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण है । अन्य धर्मों की अपेक्षा रखने वाला उसके अंश का ज्ञान नय है और अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला दुर्णयमिथ्यानय है। अनेकांत का ज्ञान प्रमाण है, एक धर्म का ज्ञान नय है और उससे विरुद्ध का प्रतिक्षेपी दर्णय है। क्योंकि वह दुर्णय केवल विपक्ष का विरोधी होने से स्वपक्ष मात्र का अभिनिवेशी-हठाग्रही है इसीलिये ही वह दुर्णय है । जैसे अपने विपक्षी नास्तित्व को छोड़कर सर्वथा अस्तित्व का ग्राही नय दुर्णय है। 1 निश्चितः । ब्या० प्र० 1 2 द्वादशाङ्ग । ब्या० प्र०। 3 अर्थस्य । दि० प्र० । 4 नित्यत्वादेविशेषस्य । दि० प्र० । 5 व्यजकः । ब्या० प्र०। 6 तस्य स्याद्वादगृहीतार्थस्यानेकधर्मपरिज्ञानप्रमाणम् । दि० प्र०। 7 तस्य विवक्षितधर्मस्य प्रत्यनीको विवक्षितस्तस्य निराकांक्षो यो नयः स दुर्नयो मिथ्या । दि० प्र०। 8 सर्वथा नित्य । ब्या० प्र० । 9 सर्वथा अनित्य इति । व्या०प्र०। 10 दुर्नयः । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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