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________________ ५७४ ] अष्टसहस्री [ द० प. कारिका १०६ ऽन्यथानुपपन्नत्वनिश्चयाभावादेवागमकत्वमुक्तं स्यात् । इति तस्यैव लक्षणत्वमस्तु, सकलसम्यग्घेतुभेदेषु कार्यस्वभावानुपलम्भेष्विव पूर्ववत्-शेषवत्' -सामान्यतो दृष्टेषु वीतावीततदुभयेषु संयोगिसमवायैकार्थससवायिविरोधिषु भूतादिषु 'प्रवर्तमानस्य पक्षव्यापिनः सर्वस्माच्च विपक्षादसिद्धादिहेत्वाभासप्रपञ्चाद् व्यावर्तमानस्यान्यथानुपपन्नत्वस्य हेतुलक्षणत्वोपपत्तेः तथाविधस्यापि तदलक्षत्वे हि न किंचित्कस्यचिल्लक्षणं स्यादिति लक्ष्यलक्षणभाव एवोच्छिद्येत । सति चान्यथानुपपन्नत्वे प्रतिपाद्याशयवशात् प्रयोगपरिपाटी पञ्चावयवादिरपि न निवार्यते इति तत्त्वार्थालङ्कारे विद्यानन्दमहोदये च प्रपञ्चतः प्ररूपितम् । कार्थ समवायी विरोधि भूतादिकों में सभी सच्चे हेतुओं में प्रवर्तमान पक्ष में व्याप्त होकर रहने वाला तथा असिद्धादि हेत्वाभास के भेद प्रभेद रूप सभी विपक्षों से व्यावर्तमान रूप अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का लक्षण ठीक बनता है । क्योंकि उपर्युक्त प्रकार के होते हुये भी अन्यथानुपपत्ति लक्षण के अभाव में कुछ भी किसी का लक्षण नहीं हो सकेगा और इस प्रकार से तो लक्ष्य लक्षण भाव ही समाप्त हो जायेगा। भावार्थ-बौद्धों ने कार्य हेतु, स्वाभाव हेतु और अनुपलब्धि हेतु, ऐसे तीन हेतु माने हैं। नैयायिक ने पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट ऐसे अनुमान के तीन भेद माने हैं। सांख्य ने वीत, अवीत और उभय अर्थात केवलान्वयी. केवलव्यतिरेकी और अन्वय व्यतिरेकी ऐसे तीन हेतु माने हैं एवं और भी संयोगी आदि हेतुओं में रहने वाला हेतु का लक्षण पक्ष व्यापी कहलाता है। और यदि हेतु का लक्षण असिद्ध, विरुद्ध आदि दोषों से रहित है तथा सभी विपक्षों से व्यावृत है तब तो वह सच्चा हेतु है अन्यथा नहीं है। और सभी विपक्षों से व्यावृत्त होना इसी का नाम तो 'अन्यथानुपपत्ति' है । यदि हेतुपक्ष में रहते हुये भी विपक्षों से व्यावृत्त नहीं है तो वह सच्चा हेतु है इसलिये 'अन्यथानुपपत्ति' इस एक को ही हेतु का लक्षण मान लेना चाहिये । क्योंकि एक लक्षण के बिना हेतु अहेतु ही है। अन्यथानुपपन्नरूप एक लक्षण होने पर प्रतिपाद्य (शिष्य) के अभिप्राय के वश से पंचावयवों के प्रयोग की परिपाटी का भी निवारण नहीं किया जाता है । इसका विस्तृत वर्णन 'तत्त्वार्थालंकार' और 'विद्यानन्दमहीदय' महा शास्त्र में स्वयं मैने (विद्यानन्दि आचार्य ने) किया है। 1 सौगतस्य । ब्या० प्र०। 2 कारणात् कार्यानुमानम् । ब्या० प्र०। 3 कार्यात् कारणानुमानम् । ब्या० प्र० । 4 अकार्यकार्यकारणादकार्यकारणानुमानं बैशेषिकस्य । ब्या० प्र०। 5 द्रव्पयोः संयोगः। धूमादि । उष्णस्पर्शादग्न्यनुमानमुष्णस्पर्शादग्नी समवायात् । ब्या० प्र० । 6 रसाद्रूपानुमानं रूपरसयोरेकार्थसमवायात् । ब्या० प्र० । 7 भूतादिषु च वर्तमानस्य । इति पा० । दि० प्र० । पूर्वचरादिषु । ब्या० प्र० । 8 उक्तलक्षणान्यथानुपपन्नत्वमपि हेतोलक्षणं न भवति चेत्तदा कस्यचिद्धेतोः किमपि लक्षणं न भवेदेवं सति किमायातमिदं लक्ष्यमिदं लक्षणमिति भाव एव विनश्येत् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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