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( ६२ ) स्थानों पर इस निर्माण की चर्चा आई किन्तु होनी कोई को टाल नहीं सकता, माताजी ने उत्तर प्रान्त में आकर स्थान चयन किया-पावन तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुर का।
___ सत् १९७५ में दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने हस्तिनापुर में संस्था के नाम से एक भूमि खरीदकर निर्माण कार्य प्रारम्भ किया जिसमें प्रथम चरण के रूप में बीचोबीच का ८४ फुट ऊंचा सुमेरुपर्वत सन् १६७६ में बनकर तैयार हो गया उसके १६ जिनमन्दिरों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा २६ अप्रैल से ३ मई १९७६ तक सम्पन्न हुई । अजैन बन्धु भी इस पर्वत पर मनोरंजन की भावना से चढ़ते हैं किन्तु अनायास ही भगवान के सामने उन सबका भी मस्तक नत हो जाता है। सुमेरु पर्वत एवं ज्ञानमती माताजी का प्रभाव था कि निर्माण कार्य आगे बढ़ता गया और ६ वर्ष की अल्प अवधि में पूरा जम्बूद्वीप बनकर तैयार हो गया।
इसी बीच ४ जून १९८२ को पू० माताजी की प्रेरणा से प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने दिल्ली के लाल किला मैदान से जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का प्रवर्तन किया जिसके द्वारा १०४५ दिनों तक सम्पूर्ण भारत में जम्बूद्वीप एवं भगवान महावीर के सिद्धान्तों का खूब प्रचार हुआ तथा अन्त में २८ अप्रैल १६८५ को हस्तिनापुर में समापन समारोह के साथ रक्षामन्त्री श्री पी० वी. नरसिंहराव एवं सांसद श्री जे० के. जैन ने यहीं पर उस ज्ञानज्योति की अखंड स्थापना की जो प्रत्येक आगंतुक नरनारियों को अहनिश ज्ञान का संदेश प्रदान करती है।
यही अवसर था जम्बूद्वीप में विराजमान समस्त जिनबिम्बों की प्राण प्रतिष्ठा का। अतः २८ अप्रैल से २ मई १९८५ तक जम्बूद्वीप की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई।
अब तो हस्तिनापुर नगरी सचमुच में भगवान् शांतिनाथ का युग दरशा रही है जिसे कभी राजधानी के रूप में माना जाता था। किन्तु मध्यकाल में इसकी गरिमामात्र पुराणों तक सीमित हो गई थी, वर्तमान दशक में इसकी उन्तति देखकर कविर द्यानतराय की ये पंक्तियाँ स्मृत हो आती हैं
गुरु की महिमा वरणी न जाय, गुरु नाम जपो मनवचनकाय ॥ पू० ज्ञानमती माताजी के चरण पड़ते ही यहाँ की रज पुनः चन्दन बन गई और वीणा के मूक तार पुनः झंकृत होकर पूर्व इतिहास की गाथा गाने लगे
अरे ! यह तो वही भूमि है जहां आदि तीर्थकर वृषभदेव को प्रथम बार इक्षुरस का आहार राजा श्रेयांस ने दिया था और स्वप्त में सुमेरु पर्वत देखा था । शायद इसीलिए ऊंचे सुमेरु पर्वत का निर्माण यहाँ की पवित्र स्थली पर हुआ है । एक ही नहीं न जाने कितने इतिहास इस भूमि से जुड़े हैं। देखिए न ! रक्षाबन्धन पर्व महाभारत की कथा, मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा का इतिहास, द्रौपदी के शील महत्त्व, राजा अशोक और रोहिणी सम्बन्ध, अभिनन्दन आदि पांच सौ मुनियों का उपसर्ग, गजकुमार मुनि का उपसर्ग तथा भगवान् शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ के चार-चार कल्याणक का सौभाग्य यहाँ की ही माटी को प्राप्त हुआ था। उसी का पुनरुद्धार किया परमतपस्विनी गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने।
अपनी निन्दा प्रशंसा से दूर, आत्महित और जनहित की भावना से ओतप्रोत, रत्नत्रय की इस साधिका के पास न जाने कितने लोग आकर प्रतिदिन उनसे अपना कष्ट कहकर शांति प्राप्त करते हैं।
पूज्य माताजी की दैनिक चर्या
कर्मभूमि में दिन और रात का विभाजन सूर्य और चाँद के इशारों पर होता है क्योंकि यहां की प्रकृति ने इसे ही स्वीकार किया है । मनुष्य सुबह से शाम तक अपनी समस्याओं से जूझता है पुनः थककर निद्रा की गोद
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