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________________ में स्थान प्राप्त कर लेता है। प्रातःकाल उठकर अपने धन्धे में लग जाता है। यही क्रम सौ पचास वर्ष की प्राप्त अल्पायु में चलता है, पुनः कालकवलित हो जाता है । इस क्षणिक विनश्वर जीवन में भी महापुरुष जीवन के प्रत्येक क्षणों का उपयोग करके उसे महान् बना लेते हैं। आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का जीवन भी उन महापुरुषों में एक है, जिन्होंने सन् १९५२ से गृहपरित्याग करके आज ३८ वर्षों में अपने को एक महान् साधक को कोटि में पहुंचा दिया है। सुबह से शाम तक उनका प्रत्येक क्षण अमूल्य होता है । प्रातः ४ बजे उठकर प्रभु का स्मरण, अपररात्रिक स्वाध्याय, प्रतिक्रमण के पश्चात् ६ बजे तक सामायिक करती हैं । लेखन चूंकि उनके जीवन का मुख्य अंग ही है, अतः स्वास्थ्य की अनुकलतानुसार थोड़ी देर लेखन कार्य करती है । उसके पश्चात् त्रिमूर्ति मन्दिर, कमल मन्दिर और जम्बूद्वीप के दर्शन करके अभिषेक देखती हैं । प्रातः ७.३० बजे से पू० माताजी समस्त शिष्यों को समयसार आदि ग्रन्थों का संस्कृत टीकाओं से स्वाध्याय कराती हैं । बाहर से आये हुए यात्रियों को धर्मोपदेश भी सुनाती हैं और १० बजे आहारचर्या के लिए निकलती हैं। ____ अनंतर मध्यान्ह में सामायिक करती हैं । पुन: २.३० बजे से विभिन्न प्रान्तों से आये हुए यात्रीगण उनके दर्शन करते हैं तथा अपनी-अपनी समस्याओं के आधार पर पू० माताजी से समाधान भी प्राप्त करते हैं। यह समय २३० बजे से ५ बजे तक रहता है । फिर सामूहिक प्रतिक्रमण होता है । पुनः माताजी अपने शिष्य-शिष्याओं सहित मन्दिरों के दर्शन करती हैं एवं जम्बूद्वीप की ५-७ प्रदक्षिणा लगाती हैं। कभी कभी सुमेरु पर्वत के ऊपर तक जाकर वंदना भी करती हैं। पुनः सायंकालीन सामायिक प्रारम्भ हो जाती है। इसके पश्चात् पूर्वरात्रिक स्वाध्याय सुनती हैं । अनंतर स्वयं का चिन्तन करके १० बजे से रात्रि विश्राम करती हैं। यह तो मैंने स्वयं देखा है कि जब माताजी का स्वास्थ्य अनुकूल था तो उनका ४-५ घण्टे का समय साधुवर्गों को अध्ययन कराने में एवं ३-४ घण्टे लेखन में व्यतीत होता था। इस प्रकार पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की संक्षिप्त जीवन झांकी मैंने प्रस्तुत की है । आशा है कि हमारे पाठकगण उनके जीवनवृत से लाभ उठायेंगे तथा हस्तिनापुर पधार कर साक्षात् पू० माताजी के एवं उनकी अमरकृतियों के दर्शन कर धर्मलाभ प्राप्त करेंगे। श्री वीर के समवसृति में चंदना थीं। गणिनी बनीं जिनचरण जगवंदना थीं। गणिनी वही पदविभूषित को नमूं मैं । श्रीमात ज्ञानमति को नित ही नमूं मैं ॥ "इत्यलम्" ' ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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