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रचना की एवं सैकड़ों संस्कृत स्तुतियां आदि बनाई। जहां अष्टसहस्री जैसे क्लिष्टतम ग्रन्थ का "स्याद्वादचितामणि" टीका नाम से हिन्दी अनुवाद किया, अध्यात्मग्रंथ नियमसारपर 'स्याद्वादचन्द्रिका' नामक संस्कृत टीका समयसार ग्रंथ में आत्मख्याति और तात्पर्यवत्ति इन दोनों संस्कृत टीकाओं की हिन्दी टीका लिखी है, वहीं बालोपयोगी बालविकास के चार भाग तथा उपन्यास शैली में अनेक कथानक भी लिखे हैं। जिनमें से लगभग १०० ग्रन्थों का लाखों की संख्या में प्रकाशन भी हो चुका है।
निवृत्ति मार्ग में रहते हुए भक्तिमार्ग भी आपसे अछूता नहीं रहा । उसी का प्रतिफल आज हम देख रहे हैं कि सारे हिन्दुस्तान में इन्द्रध्वज और कल्पद्रुम विधानों की धूम मची हुई है। इसी प्रकार से सर्वतोभद्र महाविधान, तीनलोक विधान, त्रैलोक्य विधान, तीसचौबीसी तथा पंचमेरु आदि विधान पू० माताजी की कलम से लिखे गये हैं । उनका भी हस्तिनापुर से शुभारम्भ हो चुका है । भक्ति में आदर नहीं रखने वाले कितने ही ब्यक्ति इन विधानों को सुनकर भाक्तिक बन जाते हैं तथा भक्तिरस में डूबकर प्रत्येक प्राणी कुछ क्षणों के लिये तो परमात्मा में निमग्न हो ही जाते हैं। धर्म का गूढ़ से गूढ़ रहस्य इन विधानों की जय मालाओं में भरा हुआ है। आत्मरसिक श्रावक के लिये किसी भी विधान की एक पुस्तक ही पर्याप्त होती है जिसके द्वारा वे चारों अनुयोगों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार से ज्ञानमती माताजी ने अपने जीवन में साहित्यसूजन का नवीन कार्य किया है। उनके मार्ग का अनुसरण करते हुए आज तो कई आर्यिकाओं ने ग्रन्थ निर्माण की ओर अपने कदम बढ़ाये हैं जो नारी जाति के लिये गौरव का विषय है। एक कवि ने कहा भी है
जो बतलाते नारी जीवन लगता मधुरस की लाली है। वह त्याग तपस्या क्या जाने कोमल फूलों की डाली है। जो कहते योगों में नारी नर के समान कब होती है।
ऐसे लोगों को ज्ञानमती का जीवन एक चुनौती है ॥ जम्बूद्वीप निर्माण एवं ज्ञानज्योति प्रवर्तन--
सन् १९६५ में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने ५ आर्यिकाओं सहित आर्यिका संघ का चातुर्मास कर्नाटक प्रान्त के श्रणबेलगोला में किया। भगवान बाहुबली की अमरकृति से वहां का इतिहास सर्वप्रसिद्ध है। उस वीतराग छवि को हृदयान्तरित करने हेतु पू० माताजी ने एक बार १५ दिन तक मौनपूर्वक विध्यगिरि पर्वत पर ध्यान करने का संकल्प किया। उसी ध्यान की श्रृंखला में एक दिन सम्पूर्ण अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना हई, चित्त की यात्रा ने जम्बूद्वीप को प्रधानता दी। ध्यान की क्रिया सम्पन्न होने के पश्चात जैनागम का अवलोकन होने लगा। मन में प्रश्न उभरता कि क्या ऐसा अतिशय सम्पन्न स्थान कहीं है ? हां, प्रश्नवाचक चिन्ह उत्तर रूप में परिवर्तित हुआ, खोज करते-करते करणानुयोग के तिलोयपण्णत्ति एवं त्रिलोकसार में सारा ज्यों का त्यों वर्णन देखने को मिला। माताजी को प्रसन्नता का पार नहीं रहा क्योंकि उनका ध्यान आज सार्थक साकार रूप ले चुका था।
इसे तो भगवान् बाहुबली की देन, ध्यान की एकाग्रता और पूर्व भव के संस्कार ही मानना पड़ेगा, क्योंकि इससे पूर्व माताजी को कोई ऐसा विकल्प नहीं था। पू० माताजी के मुखारविन्द से इस रचना का विवरण सुनकर सर्वप्रथम तो श्रवण बेलगोला के पीठाधीश भट्टारक श्री चारुकीर्ति जी ने बहुत प्रसन्नता व्यक्त की। पुनः कई
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