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की आज्ञानुसार अपने आर्यिका संघ सहित सम्मेदशिखर, कलकत्ता तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत की यात्रा हेतु अलग विहार किया ।
दीपक जिस प्रकार स्वयं जलकर भी दूसरों को प्रकाश प्रदान करता है, चन्दन विषधरों द्वारा उसे जाने पर सुगन्धि ही बिखराता है । उसी प्रकार पू० ज्ञानमती माताजी ने सदैव परोपकार में ही अपने जीवन की सार्थकता मानी है ।
जहाँ आपने कुमारी कन्याओं, सौभाग्यवती महिलाओं एवं विधवा महिलाओं को गृहस्थरूपी कीचड़ से निकालकर मोक्षमार्ग में लगाया है वहीं कई नवयुवक एवं प्रौढ़ पुरुषों को भी शिक्षा देकर त्याग के चरम शिखर पर पहुंचाया है | चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के चतुर्थ पट्ट पर विराजमान आचार्यश्री अजितसागर महाराज वर्तमान में इसके जीते-जागते उदाहरण हैं । बाल ब्र० श्री राजमल जी को सन् १९५८-५६ में राजवार्तिक, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचाध्यायी आदि ग्रन्थों का अध्ययन कराया और दीक्षा की प्रेरणा देती रहीं । उसी के फलस्वरूप अपने अथक प्रयासों के बल पर आखिर एक दिन मुनि दीक्षा के लिये ज्ञानमती माताजी ने तैयार कर ही दिया और सन् १६६१ में सीकर (राज० ) में आचार्यश्री शिवसागर महाराज ने उन्हें दीक्षा देकर मुनि अजित सागर बना दिया ।
देखिए ! त्याग की विशेषता और मातृ हृदय की उदारता, आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने तत्क्षण ही उन्हें नमोस्तु करना प्रारम्भ कर दिया क्योंकि जैनधर्म में जिनलिंग - मुनिवेष सर्वाधिक पूज्य माना गया है ।
परमपूज्य आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी महाराज हमेशा कहा करते थे—
"पारसमणि तो लोहे को सोना बनाता है, पारस रूप नहीं बनाता, किन्तु ज्ञानमती माताजी वह पारस हैं जो लोहे को सोना ही नहीं, किन्तु पारस बना देती हैं। प्रत्युत "निजसम की बात तो जाने दो निज से महान कर देती हैं ।" वास्तव में मैंने भी यह अनुभव किया कि पू० माताजी अपने शिष्यों की तथा दूसरों की उन्नति देख सुनकर अत्यधिक प्रसन्न होती हैं। जिस समय उदयपुर (राज० ) में जून १६८७ में मुनि श्री अजितसागर महाराज को आचार्य पट्ट प्रदान किया गया, उस समय ज्ञानमती माताजी हस्तिनापुर में बैठकर भी कितनी प्रसन्न होकर उनके दीर्घ जीवन एवं उज्ज्वल परम्परा की अखण्डता हेतु मंगल कामना कर रही थीं ।
इसी प्रकार से आपकी शिष्याओं में से आर्यिका श्री जिनमती माताजी, आदिमती माताजी ने आपके मुखारविन्द से ही धर्माध्ययन करके प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं गोम्मटसार कर्मकण्ड जैसे ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद उपस्थित किया है । कई आर्यिकाएं एवं ब्रह्मचारिणी शिष्याएं अपनी-अपनी योग्यतानुसार यत्र-तत्र धर्म प्रचार में संलग्न हैं ।
साहित्यिक क्षेत्र -
दृढ़ संकल्पी आत्मा का प्रत्येक कार्य अवश्यमेव सफल होता हैं। जिस प्रकार ज्ञानमती माताजी ने शिष्य निर्माण में अच्छी सफलता प्राप्त की है, उसी प्रकार साहित्य निर्माण के क्षेत्र में इस युग में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है ।
वर्तमान शताब्दी में जैन समाज ज्ञानमती माताजी ने जब से अपनी लेखनी
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की किसी महिला ने भी साहित्यसृजन का कार्य नहीं किया था, किन्तु प्रारम्भ की, तब से लेकर आज तक उन्होंने लगभग १५० ग्रन्थों कीं
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