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पद का लक्षण ]
तृतीय भाग
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'वाक्यमित्यप्यनेन' विचारितं निराकाङ क्षपरस्परापेक्षपदसंघातवर्तिन्याः सदृशपरिणामलक्षणाया 'जातेर्वाक्यत्वघटनादन्यथा तद्विरोधात् । (४) एकोनवयवः शब्दो वाक्यमित्यप्ययुक्तं 'तस्याप्रमाणकत्वात्, श्रोत्रबुद्धौ तदप्रतिभासनात्' तत्प्रतिबद्धलिङ्गाभावात् । अर्थप्रतिपत्तिलिङ्गमिति चेन्न, अन्यथापि तद्भावात्, वाक्यस्फोटस्य "क्रियास्फोटवत् तत्त्वार्थालङ्कारे 13निरस्तत्वात् । क्रमो वाक्यमित्यपि न विचारक्षम, 14वर्णमात्रक्रमस्य वाक्यत्वप्रसङ्गात् । पदरूपतामापन्नानां वर्णविशेषाणां क्रमो वाक्यमिति चेत्, 15स यदि परस्परापेक्षाणां निराका
उपर्युक्त कथन से हो जाता है। क्योंकि "निराकांक्षपरस्परापेक्ष पद संघात वर्तिनी" सदृश परिणाम लक्षण वाली जाति को ही वाक्य मानना सुघटित है, अन्यथा वाक्यत्व का विरोध आ जायेगा।
४. जिनका कहना है कि "एक अवयवरहित-निरंश-शब्द वाक्य है" यह कथन भी अयुक्त है । क्योंकि यह अप्रमाणिक है । श्रोत्र ज्ञान में वह एक निरंश शब्द रूप वाक्य प्रतिभासित नहीं होता है । एवं उस निरंश शब्द से अविनाभावी हेतु का भी अभाव है।
शंका-अर्थ का ज्ञान ही उसमें लिंग हेतु है।
समाधान-ऐसा नहीं कहना। क्योंकि अन्यथापि–निरंश शब्द के बिना भी अर्थ का ज्ञान देखा जाता है। यदि आप कहें कि शब्द एक है, अवयवरहित है और वह वाक्य-स्फोट रूप है ऐसा भी नहीं कहना क्योंकि उस वाक्य स्फोट का तो क्रिया स्फोट के समान "तत्त्वार्थलोकवातिकालंकार ग्रन्थ" में निरसन किया गया है।
५. नैयायिक-क्रम ही वाक्य है।
जैन-यह लक्षण भी विचार (परीक्षा) को सहन करने में समर्थ नहीं है। अन्यथा “क, ख, ग, घ इत्यादि वर्ण मात्र के क्रम को भी वाक्य संज्ञा हो जायेगी। यदि आप कहें कि पदरूपता को प्राप्त हुये वर्ण विशेषों का क्रम वाक्य है तब तो यदि परस्परापेक्ष पदों का निराकांक्ष होना ही वाक्य है वह भी पदों का समुदाय ही है । क्रमभावी में कालप्रत्यासत्ति से ही समुदाय है और सहभावी में ही देशप्रत्यासत्ति से समुदाय व्यवस्थित ही है और वही वाक्य का लक्षण हमें अभीष्ट है। यदि आप कहें कि परस्परापेक्ष पदों का साकांक्ष क्रम वाक्य है तब तो वह वाक्य नहीं रहेगा, अर्ध वाक्य के
1 अत्रापि संघातवदुषणं जातिः परस्परापेक्षपदसंघातवर्तिनी वेति विकल्पद्वयानतिक्रमात् । दि० प्र०। 2 अस्मत्पक्षसिद्धिसमर्थनेन । ब्या० प्र० । 3 अनुक्तपदानाम् । दि० प्र० । 4 अनुक्तानामन्यपदानां साकांक्षत्वे वाक्यं विरुद्धयते । दि० प्र०15 वाक्यस्य । दि० प्र०। 6 अनवयवशब्दस्याप्रकाशनात् श्रोत्रज्ञाने । दि० प्र०। 7 श्रावणप्रत्यक्ष निरंशशब्दग्राहकं न भवति चेन्मा भूदनुमानं तद् ग्राहक भविष्यतीत्याशंकायामाह । दि० प्र०। 8 अनवयवशब्दयुक्तानुमाना. भावात् । दि० प्र०19 च । दि० प्र० । 10 अर्थप्रतिपत्तिभावात् । ब्या० प्र०। 11 गमनादिलक्षण । ब्या० प्र० । 12 स्फुटति प्रकटीभवत्यर्थोऽस्मिन्निति स्फोट: । ब्या० प्र०। 13 च । ब्या० प्र०। 14 एव । दि० प्र०। 15 क्रमः। ब्या० प्र०।
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