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________________ ५५८ ] अष्टसहस्री [ द० ५० कारिका १०३ ङ्क्षस्तदा समुदाय एव, क्रमभुवां कालप्रत्यासत्तेरेव समुदायत्वात् सहभुवामेव देशप्रत्यासत्तेः समुदायत्वव्यवस्थिते । अथ साकाङ्क्षस्तदा न वाक्यमर्धवाक्यवत् परस्परनिरपेक्षाणां तु क्रमस्य वाक्यत्वेतिप्रसङ्ग एव । (६) बुद्धिक्यिमित्यत्रापि भाववाक्यं द्रव्यवाक्यं वा ? प्रथमकल्पनायामिष्टमेव । द्वितीयकल्पनायां प्रतीतिविरोधः । (७) अनुसंहृतिक्यिमित्यपि नानिष्टं, भाववाक्यस्य यथोक्तपदानुसंहतिरूपस्य चेतसि परिस्फुरतोभीष्टत्वात् । (८-६-१०) आद्यं पदमन्त्यं वान्यद्वा पदान्तरापेक्षं वाक्यमित्यपि नाकलङ्कोक्तवाक्याद्भिद्यते, तथा परस्परापेक्षपदसमुदायस्य निराकाङ्क्षस्य वाक्यत्वसिद्धः, तदभावे पदसिद्धेरप्यभावप्रसङ्गात् । ननु यदि निराकाङ्क्षः परस्परापेक्षपदसमुदायो 'वाक्यं न हि तदानीमिदं भवति, यथा समान । और परस्पर निरपेक्ष पदों के क्रम को वाक्य मानने पर तो अति प्रसंग आ जायेगा । अर्थात् बहुत से पुरुषों ने जिनका उच्चारण किया है वे भी मिलकर वाक्य बन जायेंगे। ६. 'बुद्धि वाक्य है।' इस मान्यता में भी प्रश्न होता है कि वह बुद्धि भाव वाक्य है या द्रव्य वाक्य ? प्रथम कल्पना माना तो हमें इष्ट ही है। क्योंकि हम भी ज्ञान को भाव वाक्य मानते हैं। यदि दूसरा पक्ष लोगे तब तो प्रतीति से ही विरोध आ जाता है। अर्थात् द्रव्य रूप शब्दात्मक वाक्य की बुद्धि रूप से प्रतीति नहीं आती है। ७. 'अनुसंहृती वाक्य है' इस मान्यता में भी हमें कुछ अनिष्ट नहीं है। क्योंकि यथोक्त पद की अनुसंहृती रूप चित्त में स्फुरित होते हुये भाव वाक्य हमें अभीष्ट हैं। अर्थात् परस्पर साकांक्ष एवं वाक्यांतर पद निराकांक्ष ऐसे पदों का अनुस्मरण चित्त में स्फुटित है तो वह भाव वाक्य है। (८-६-१०) 'आद्यपद', 'अन्त्यपद' अथवा 'अन्य-मध्यपद' ये तीनों यदि पदातर की अपेक्षा रखते हैं तो वाक्य हैं । अतः यह कथन भी श्री अकलंकदेव के द्वारा कथित वाक्य के लक्षण से भिन्न नहीं है। क्योंकि उसी प्रकार से निराकांक्ष परस्परापेक्ष पदों का समुदाय वाक्य रूप माना गया है। यह बात सिद्ध है । उसके अभाव में पद की सिद्धि का अभाव हो जायेगा। अर्थात् पदांतरगतवर्णों से निरपेक्ष, परस्परापेक्ष वर्गों के समुदाय को पद कहते हैं । और वाक्य की सिद्धि न होने से पद का भी अभाव अवश्यंभावी है। नैयायिक-यदि निराकांक्ष परस्परापेक्ष पदों का समुदाय वाक्य है, "तब तो यह बात सिद्ध नहीं होगी कि "शब्द परिणामी है क्योंकि सत् रूप है, जो सत् हैं, वह सभी परिणामी हैं, जैसे-घट।" 1 पदानाम् । ब्या० प्र० । 2 क्रमभुवां देशप्रत्यासत्तेः समुदायत्वं कुतो न भवेदित्यत आह । ब्या० प्र० । 3 ता । व्या. प्र०। 4 पदसमुदायग्राहकम् । दि० प्र०। 5 पुद्गलरूपम् । दि० प्र०। 6 स्याद्वादिनाम् । दि० प्र० । 7 इदं वक्ष्यमाणलक्षणं साधनवाक्यं वाक्यं न भवति तत्किमित्युक्त आह शब्दः पक्षः परिणामी भवतीति साध्यो धर्मः । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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