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________________ ५५० । अष्टसहस्री [ द० प० कारिका १०२ कथंचिदभेदसिद्धे । 'तद्वत्प्रमाणफलयोः कथंचिदव्यवहितत्वसिद्धिरुदाहरणसद्भावात् । सर्वथा तादात्म्ये तु प्रमाणफलयोन व्यवस्था, तद्भावविरोधात् । न हि सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलमिति सर्वथा तादात्म्ये सिध्यति । दर्शनस्यासारूप्यव्यावृत्ति: सारूप्यमनधिगतिव्यावृत्तिरधिगतिरिति 'व्यावृत्तिभेदादेकस्यापि प्रमाणफलव्यवस्थेति चेन्न, स्वभावभेदमन्तरेणान्यव्यावृत्तिभेदानुपपत्तेः । तस्माद्ग्राह्यसंविदाकारयोः प्रमाणफलव्यवस्थायामपि व्यामोहविच्छेदाभावे विसंवादानिराकरणे तदज्ञस्येव विषदृष्टिः 'प्रमाणत्वं न प्रतिपत्तुमर्हति । 'प्रदीपवत्' इस उदाहरण का सद्भाव है एवं आप सौगत के यहां भी सर्वथा प्रमाण और फल में तादात्म्य-अभेद मानने पर तो यह प्रमाण है, यह उसका फल है इत्यादि व्यवस्था नहीं हो सकेगी क्योंकि सर्वथा अभंद में तद्भाव का विरोध है। 'इस निर्विकल्प प्रमाण यह सारूप्य-ताद्ररूप्य अर्थात् मेयरूप प्रमाण है और अधिगतति इसका फल है' यह बात सर्वथा तादात्म्य में सिद्ध नहीं होती है। सौगत-निर्विकल्प दर्शन में असारूप्य से व्यावृत्ति सारूप्य है, अनधिगति से व्यावृत्ति अधिगति है। इस प्रकार से व्यावृत्ति के भेद से एक में भी प्रमाण और फल की व्यवस्था बन जाती है। जैन-ऐसा नहीं कहना । क्योंकि स्वभाव में भेद को माने बिना अन्य से व्यावृत्ति का भेद भी नहीं बन सकता है। इसलिये ग्राह्य और संविदाकार में प्रमाण और फल की व्यवस्था करने पर भी अज्ञान के नाश को न मानने पर विसंवाद का निराकरण नहीं हो सकता है क्योंकि आपका मान्य वह निविकल्प दर्शन अज्ञानी के समान ही है विष के विषय में 'यह विष है' इस प्रकार से न जानता हुआ विष का प्रत्यक्ष भी प्रत्यक्षप्रमाणता-वास्तविकता को जानने के लिये समर्थ नहीं हो सकेगा। अर्थात् किसी को विष का इन्द्रिय प्रत्यक्ष हुआ किन्तु वह ज्ञान अपने विषय में अज्ञान की निवृत्ति रूप फल को नहीं करता है अतः उसे विष में 'यह विष है' ऐसा ज्ञान नहीं होगा पुनः वह उसका प्रयोग भी कर बैठेगा क्योंकि अज्ञान का अभाव हुये बिना भी उतने प्रत्यक्ष मात्र को ही प्रमाण 1 प्रदीपस्य करणप्रकाशक्रियावत् । ब्या० प्र० । 2 न व्यवस्थेति पाठः । दि० प्र० । 3 तयोः । दि० प्र० । 4 तज्जन्मतपतदध्यवसायलक्षणं सरूपं तस्य भावः सारूप्यमस्य सौगताभ्युपगतस्य दर्शनस्य । दि० प्र०। 5 परिछित्तिः । ब्या० प्र०। 6 सौगत आह एकस्य निर्विकल्पकदर्शनस्योक्तलक्षणव्य वृत्तिभेदात् प्रमाणफलयोर्व्यवस्थितिघंटते इति चेत् =स्या० इति न प्रमाणफलयोः स्वभावभेदं विना अन्यव्यावृत्तिभेदो नोपपद्यते यत:=यस्मादेवं तस्मात्संवेदनाद्वैताभ्युपगतयोर्वेद्यवेदकाकारयोः । दि० प्र०। 7 निर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य । दि० प्र० । 8 मत्यादेामोहविच्छेदः साक्षात् फलं यस्मात् । ग्राह्याकारो मेयरूपता । ब्या० प्र०। 9 विषदर्शनवत्सर्वज्ञस्याकल्पनात्मकं दर्शनं न प्रमाणं स्यादविसंवादहानितः= ईषद्दर्शनम्। दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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