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________________ प्रमाण का फल-स्याद्वाद का अर्थ ] तृतीय भाग [ ५५१ तावतंव प्रमाणत्वे क्षणिकत्वाद्यनुमानमधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वान्न वै प्रमाणमिति 'निरूपितप्रायम् । मान लेने पर तो दर्शन के अनन्तर होने वाले क्षणिकादि अनुमान भी निर्विकल्प के द्वारा अधिगत अर्थ को ही जानने वाले होने से प्रमाण नहीं हो सकेंगे। इस प्रकार से प्रायः निरूपण कर दिया गया है। प्रमाण का लक्षण और फल स्मृति प्रत्यभिज्ञान और तर्क की पृथक् सिद्धि का सारांश हे भगवन् ! आपके सिद्धान्तानुसार तत्त्वज्ञान ही प्रमाण है उसमें युगपत् सर्व पदार्थों का अवभासन करने वाला केवलज्ञान है एवं स्याद्वादनय से संस्कृत मतिश्रुतादि शेष ज्ञान कर्मभावी हैं। "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं" इस विशेषण से अज्ञान, निराकार दर्शन और सन्निकर्ष आदि को अप्रमाण कह दिया है क्योंकि ये स्वार्थाकार-जानने रूप क्रिया के प्रति साधकतम नहीं हैं तथा संशयादि मिथ्याज्ञान और मत्यादि आभासज्ञान का भी निराकरण हो जाता है। यदि आप कहो कि तत्त्वज्ञानान्तर रूप प्रमेय और आत्मा भी स्वपर ज्ञान के प्रति साधकतम हैं अतः वे प्रमेय और प्रमाता भी प्रमाण बन जावेंगे ऐसा नहीं कहना क्योंकि तत्त्वज्ञानान्तर रूप प्रमेय तो कर्म रूप है और प्रमाता आत्मा कर्ता है अतः वे दोनों साधकतम नहीं हैं । यदि इन्हें भी साधकतम मानोगे तो ये करण रूप हो जावेंगे। अतएव "सम्पूर्ण प्रमाणों में व्यापी तथा अप्रमाणों से व्यावृत्त एवं प्रतीति से सिद्ध तत्त्वज्ञान प्रमाण लक्षण वाला है क्योंकि वह सुनिश्चितासंभवद् बाधक प्रमाण रूप है ।" उपर्युक्त तीनों विशेषणों से अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोष का परिहार कर दिया है। तथैव हेतु भी निर्दोष है । यदि "असम्भवबाधक' पद न देते तो बाधा सहित भी प्रमाण हो जाते, 'निश्चित' पद न होता तो संशयित भी प्रमाण हो जाता "सु" शब्द न होता तो कदाचित् क्वचित् किसी को भी निश्चितासम्भवबाधक रूप ठीक हो जाता है किन्तु ऐसा नहीं है अत: “सु-सुष्ठ-सकल देश काल के पुरुषों की अपेक्षा से" ऐसा अर्थ सिद्ध होता है । अभिप्राय यह हुआ कि "सम्यक् प्रकार से सकल देश काल के पुरुषों की अपेक्षा से निश्चित रूप से असम्भव है बाधक प्रमाण जिसमें उसे "सुनिश्चितासम्भवद्बाधकत्वात्" हेतु कहते हैं। __नैयायिक ने प्रवृत्ति की सामर्थ्य को सौगत ने अर्थवत्क्रिया को भाट्ट ने, अदुष्टकारणजन्य को एवं प्राभाकर ने लोक संमतत्त्व को प्रमाण माना है किन्तु इन सबका निराकरण श्लोकवार्तिक ग्रन्थ में किया गया है। 1 व्यामोहविच्छेदाभावविसंवादानिराकरणात् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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