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________________ प्रमाण का फल-स्याद्वाद का अर्थ ] तृतीय भाग [ ५४६ . [ करणक्रिययोः कथंचित् एकत्वं कथंचित् नानात्वं चेति जैनाचार्याः स्पष्टयंति । ] तथा हि, करणस्य क्रियायाश्च कथंचिदेकत्वं 'प्रदीपतमोविगमवत्, नानात्वं च परश्वादिवत् । ननु च 'यथा देवदत्तः काष्ठं परशुना छिनत्तीति करणस्य क्रियायाश्च नानात्वं सिद्धं, छिदे: काष्ठस्थत्वात्परशोर्देवदत्तस्थत्वात्, तथा प्रदीपस्तमो नाशयत्युयोतेनेत्यत्रापि करणस्योद्योतस्य क्रियायाश्च तमोविनाशात्मिकाया नानात्वमेव प्रतीयते । तद्व करणस्य प्रमाणस्य क्रियायाश्च फलज्ञानरूपाया नानात्वेनैव भवितव्यं, तदनानात्वे दृष्टान्तभावात्' इति केचित् तेपि न प्रतीत्यनुसारिणः प्रदीपः स्वात्मनात्मानं प्रकाशयतीति प्रतीतेः, प्रदीपात्मनः कर्तुरनन्यस्य 'कथंचित्करणस्य, प्रकाशनक्रियायाश्च प्रदीपात्मिकायाः उनका भी निरसन कर दिया गया है। तथा मत्यादि ज्ञानों का परम्परा से हान, उपादान संवित्ति है अथवा उपेक्षा फल है और इसी कथन से "प्रमाण से उसका फल अभिन्न ही है" ऐसा कहने वाले बौद्धों का भी खण्डन कर दिया ग [ करण और क्रिया में कथंचित् एकत्व है और कथंचित् भेद भी है - जैनाचार्य इस बात को स्पष्ट करते हैं। ] तथाहि, करण-प्रमाण और क्रिया-परिच्छिति लक्षण-फल ये दोनों कथंचित् एक रूप हैं जैसा दीपक और उससे अंधकार का नाश । अर्थात तम का नाश ही परम्परा से प्रदीप है एवं करण और क्रिया रूप प्रमाण और उसका फल ये दोनों कथंचित् नाना रूप हैं परशु आदि के समान । अर्थात् परशुकरण से उसकी छेदन क्रिया भिन्न है। नैयायिक-जैसे देवदत्त परशु से लकड़ी को काटता है इस प्रकार से करण और क्रिया में भिन्नता है यह बात सिद्ध है, क्योंकि छिदि क्रिया काष्ठ में स्थित है एवं परशु देवदत्त के पास है। उसी प्रकार से प्रदीप अपने उद्योत के द्वारा अंधकार का नाश करता है इसमें भी उद्योत रूप करण और तमो विनाशात्मक क्रिया भिन्न ही प्रतीति में आती है। उसी प्रकार से प्रमाण रूप करण और फलज्ञान रूप क्रिया इन दोनों में भिन्नता ही होना चाहिये क्योंकि उन दोनों को अभिन्न सिद्ध करने में दृष्टांत का अभाव है। जैन-ऐसा कहने वाले आप भी प्रतीति का अनुसरण करने वाले नहीं हैं क्योंकि प्रदीप अपने स्वरूप से ही अपने को प्रकाशित करता है ऐसी प्रतीति आबाल-गोपाल प्रसिद्ध है । प्रदीपात्मककर्ता से करण कथंचित् अभिन्न है, अतः करण और प्रदीपात्मक रूप प्रकाशन क्रिया में कथंचित् अभेद सिद्ध है। उसी प्रकार से प्रमाण और उसके फल में कथंचित् एकत्व की सिद्धि है क्योंकि 1 प्रकाश । दि० प्र० । 2 करणस्य क्रियायाश्च भिन्नत्वम् । ब्या० प्र०। 3 उद्योततमोविनाशयोः कथञ्चिदेकत्वमेव तुच्छरूपाभावस्या भावादिति पूर्वोक्तदृष्टान्तस्यैव समर्थयितुं शक्यत्वेप्यन्यथा दृष्टान्तं कथयन्ति प्रदीप इति । दि० प्र० । 4 केनचित्प्रकारेण साधकतमत्वरूपेण । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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