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________________ ५४८ ] अष्टसहस्री धानादुपेक्षा | तीर्थकरत्वनामोदयात्तु हितोपदेशप्रवर्तनात् परदुःखनिराकरण सिद्धिः । इति न 'बुद्धवत्करुणयास्य प्रवृत्तिर्भगवतो, येनोपेक्षा केवलस्य फलं न स्यात् । [ [ अज्ञाननिवृत्तिर्ज्ञानस्य फलमिति स्पष्टयंति जैनाचार्याः । ] अव्यवहितं तु फलमाद्यस्याज्ञाननिवृत्तिरेव स्वविषये 'मत्यादिवत् । तथा हि मत्यादेः साक्षात् फलं स्वार्थव्यामोह विच्छेदस्तदभावे दर्शनस्यापि सन्निकर्षाविशेवात् ' क्षणपरिणामोपलम्भवदविसंवादकत्वासंभवात् । तदनेन प्रमाणाद्भिन्नमेव फलमिति व्युदस्तम् । ' तथा परम्परया हानोपादानसंवित्तिः फलमुपेक्षा वा मत्यादेः । एतेनाभिन्नमेव” प्रमाणात्फलमिति निरस्तम् । द० १० कारिका १०२ यदि कोई कहे कि उपेक्षा के होने पर परदुःख का निराकरण कैसे होगा ? उस पर आचार्य उत्तर देते हैं कि "तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से हितोपदेश में प्रवृत्ति होने से पर के दुःखों का निराकरण करना सिद्ध ही है । इसलिये आपके बुद्ध भगवान् के समान जिनेन्द्र भगवान् करुणा बुद्धि से पर के दुःखों को दूर करने की प्रवृत्ति नहीं करते हैं कि जिससे केवलज्ञान का फल उपेक्षा न हो सके । अर्थात् केवलज्ञान का उपेक्षा फल सिद्ध ही हो गया । [ ज्ञान का फल अज्ञान निवृत्ति है ऐसा आचार्य स्पष्ट करते हैं । ] केवलज्ञान का साक्षात् फल तो अज्ञान की निवृत्ति ही है अपने-अपने विषय में मति आदि के समान । तथाहि —मति आदि ज्ञानों का साक्षात् फल स्वार्थ – अपने विषय में अज्ञान का विच्छेदअभाव होना ही है । यदि अज्ञान का अभाव होना यह फल न मानें तब तो निर्विकल्पदर्शन भी सन्निकर्ष के समान होने से क्षण परिणाम की उपलब्धि के समान अविसंवादक नहीं हो सकेगा । अर्थात् जैसे एक क्षण की पर्याय को ग्रहण करने वाला निर्विकल्प ज्ञान अर्थ निश्चायक नहीं है उसी * प्रकार से सन्निकर्ष, दर्शन अथवा मत्यादि ज्ञान भी अर्थ के निश्चायक नहीं हैं इसलिये दोनों अविसंवादी नहीं होंगे | अभिप्राय यह है कि यदि आप मत्यादि ज्ञान का साक्षात् फल अज्ञान निवृत्ति नहीं मानोगे तब तो जैसे ये सन्निकर्ष आदि स्व विषय में अविसंवादी नहीं हैं वैसे ये मत्यादि भी अविसंवादी नहीं हो सकेंगे, किन्तु देखे जाते हैं । कोई कहे कि निर्विकल्प ज्ञान विसंवादी कैसे है ? तो उसका उत्तर है कि वह अनुमान का आश्रय लेता है । जो (गजन ) " प्रमाण से उसके फल को सर्वथा भिन्न ही मानते हैं इस उपर्युक्त कथन से Jain Education International 1 यथा सुगतस्य मोहात्मिकया करुणया कृत्वा हितोपदेश प्रवृत्तिस्तथा जिनेन्द्रस्य केवलज्ञानस्य फलमुपेक्षा येन केन न स्यादपितु स्यात् । उपेक्षा प्रमाणाद्भिन्नं फलम् । दि० प्र० 12 स्वाव्यवहितम् । इति पा० । दि० प्र० । 3 केवलस्य । ब्या० प्र० । 4 केवलज्ञानस्योपेक्षा लक्षणं फलं प्रमाणाद्भिन्नम् । दि० प्र० । 5 उभयोरनिश्चायकत्वाविशेषात् । दि० प्र० । 6 क्षणे परिणामस्तस्य ग्राहक उपालंभो निर्विकल्पकप्रत्यक्षं तस्येव तद्वदर्थाविसंवादकत्वासंभवोऽन्यथानुमानवैफल्यात् । दि० प्र० । 7 तस्मात्साक्षादित्यादिना । ब्या० प्र० । 8 उपपत्तिः समनन्तरं वक्ष्यमाणात्र दृष्टव्याः । ब्या० प्र० । 8 परम्परयेत्यादिना । व्या० प्र० । 10 सोगताः प्रमाणादभिन्नं फलमभ्युपगच्छति । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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