SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 626
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाण का फल ] तृतीय भाग [ ५४७ करुणस्यात्मदुःखनिवर्तनं दृष्टम् । 'अतोयमसमाधिरिति चेन्न, स्वभावतोपि स्वपरदुःखनिवर्तन निबन्धनत्वोपपत्तेः प्रदीपवत् । न वै प्रदीपः कृपालुतयात्मानं परं वा 'तमसो दुःखहेतोनिवर्तयतीति । कि तहि ? तथा 'स्वभावात् । कल्पयित्वापि कृपालुतां तत्करणस्वभावसामर्थ्य मृग्यम् । एवं हि परम्परापरिश्रमं परिहरेत् 'ततो निःशेषान्तरायक्षयादभयदानं स्वरूपमेवात्मनः प्रक्षीणावरणस्य परमा दया । सैव च मोहाभावाद्रागद्वेषयोरप्राणि रहित के अपने दुःखों को दूर करना नहीं देखा जाता है अतएव जो आपने भगवान् में करुणा का अभाव सिद्ध किया है वह कथन समाधानजनक नहीं है। जैन-ऐसा नहीं कहना । स्वभाव से भी स्वपर के दुःखों को दूर करने के कारण देखे जाते हैं जैसे प्रदीप । प्रदीप कृपा बुद्धि से अपने अथवा पर के दुःख हेतुक अन्धकार को दूर करता है आप ऐसा नहीं कह सकते हैं। प्रश्न-तो कैसे होता है ? उत्तर-उसी प्रकार से दीपक का स्वभाव है। आपको दयालुता की कल्पना करके भी उसके करण स्वभाव की सामर्थ्य को तो ढूंढना ही चाहिये । एवं परम्परा के परिश्रम को भी दूर करने से ही छोड़ देना चाहिये। भावार्थ-करुणा के अस्तित्व को मान करके उसके उत्पत्ति के कारण क्या हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर तो केवली भगवान के उस करुणा के उत्पादक कर्म तो हैं । नहीं, किन्तु उनका स्वभाव ही वैसा है यह मानना पड़ेगा और उस प्रकार से परम्परा से भी स्वभाव ही सिद्ध होता है। इस प्रकार से तो साक्षात् स्वभाव की कल्पना ही उत्तम है केवली भगवान में वैसा ही स्वभाव है। अतएव राग, द्वेषादि से उत्पन्न हुई करुणा संसारी जीव के समान केवली में नहीं है। यदि कोई कहे कि कर्म से करुणा उत्पन्न होती है उसी से भगवान् स्व-पर के दुःखों को दूर करने की इच्छा करते हैं, किन्तु यह परम्परा श्रम भी किस लिये करना? प्रत्युत उनमें स्व-पर दुःख को दूर करने का स्वभाव ही मानना श्रेयस्कर है। सम्पूर्ण अन्तराय कर्म के नष्ट हो जाने से अभयदान होता है वह आवरणरहित आत्मा का स्वरूप ही है और उसे ही 'परम दया' कहते हैं और वह परम दया ही मोह के अभाव से राग-द्वेष रूप परिणाम के न होने से उपेक्षा रूप कही जाती है।। 1 अत्राह परः यतो करुणावत आत्मदुःखनिवर्तनं दृष्टम् । अतोस्मत्कारणाद्भगवतो जिनेन्द्रस्यायमसमाधिः कष्ट इति चेत् । स्या० एवं न कस्मादित्यनुमानबलात् । भगवान् पक्षः स्वपरदुःखनिवर्तननिबन्धको भवतीति साध्यो धर्मस्तन्निवर्तनस्वभावत्वात् यथा प्रदीपः । दि० प्र०। 2 असमाधानम् । ब्या० प्र०। 3 योगिनः । ब्या० प्र० । 4 दृष्टान्तं भावयति । ब्या० प्र०। 5 का । ब्या० प्र०। 6 दु.ख निराकरण करुणया नास्ति चेत् । व्या० प्र० । 7 निवर्तनस्वभावत्वात् । ब्या०प्र०। 8 केवलिनि । ब्या० प्र०। 9 उपपत्तिः । दि० प्र०। 10 साकल्य । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy