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________________ ५४६ ] अष्टसहस्री [ द० ५० कारिका १०२ त्मन्यकरुणावान्न स स्वदुःखं 'निवर्तयति, यथा द्वेषादेविषभक्षक इति, साध्यव्यावृत्तौ साधनव्यावृत्तिनिश्चियात् । भयलोभादिनात्म'दुःखनिवर्तकर्यभिचारी हेतुरिति चेन्न, 'तेषामपि करुणोत्पत्तेः । न ह्यात्मन्यकरुणावतः परतो भयं लोभो मानो वा संभवति, तस्यात्मकरुणाप्रयुक्तत्वात् । इति परम्परया करणावानेवात्मदुःखमनशनादिनिमित्तं' निवर्तयति । भयादिहेतुका वा कस्यचिदात्मनि करुणोत्पद्यते । सोत्पन्ना सती स्वदुःखं निवर्तयति । इति साक्षाकरुणयात्मदुःखनिवर्तने प्रवर्तते 10ततो न व्यभिचारः । 12एतेनादृष्टविशेषवशादात्मनि 14दुःखनिवर्तनपरैर्व्यभिचारचोदना निरस्ता, "ततः करुणोत्पत्तरेव तन्निवर्तनात् । तन्ना. इस हेतु का अपने साध्य के साथ अविनाभाव सिद्ध है । तथाहि "जो अपने में अकरुणावान् है वह अपने दुःख को दूर नहीं करता है। जैसे द्वेष, दुःख, भय आदि से विष को भक्षण करने वाला मनुष्य अपने प्रति करुणावान् नहीं है। इस प्रकार से साध्य की व्यावृत्ति के होने पर साधन की व्यावृत्ति निश्चित है। यदि कोई कहे कि भय, लोभादि से अपने दुःखों को निवर्तन करने वालों से यह हेतु व्यभिचारी है सो भी नहीं कहना क्योंकि उनके भी करुणा की उत्पत्ति पाई जाती है। जो अपने में करुणावान् नहीं है उसको पर से भय, लोभ अथवा मान का होना संभव नहीं है क्योंकि वे भयादि अपने में करुणा होने से ही होते हैं। इस प्रकार से परम्परा से करुणावान् ही अनशनादि के निमित्त से होने वाले अपने दुःखों को दूर करता है। अथवा भयादि के निमित्त से भी किसी को अपने में करुणा उत्पन्न होती है और वह करुणा उत्पन्न होकर अपने दुःखों को दूर करती है। इसलिये साक्षात् करुणा से ही अपने दुःख को दूर करने में प्रवृत्ति होती है। अतः इस हेतु में व्यभिचार दोष नहीं है । इसो कथन से "भाग्य विशेष के निमित्त से अपने दुःखों को दूर करने में तटस्थ लोग तंत्पर होते हैं, अतः व्यभिचार दोष आता है।" ऐसा कहने वालों का भी निरसन कर दिया गया है क्योंकि उस भाग्य से भी करुणा की उत्पत्ति होने से ही दुःखों को दूर करना सम्भव है। इसलिये करुणा 1 बाधकप्रमाणात् । दि० प्र०। 2 अत्राह परः स्याद्वादिन् करुणावत्वादिति भावको हेतु भयलोभादिना कृत्वा आत्मदुःखनिवर्तकः पुरुषः व्यभिचार्यस्तीति चेत् = स्था० एवं न कस्मात् भयलोभादियुक्तानामपि करुणासंभवादात्मदुः खनिवर्तनं घटते । दि० प्र०। 3 मान । दि० प्र० । 4 पूरुषैः । दि० प्र०। निवर्तकानाम् । दि० प्र०) 6 परतोभयादिमतः । दि० प्र०। 7 जनितम् । दि० प्र०। 8 करुणा । दि० प्र०। 9 भा। ब्या०प्र० । 10 प्रवर्तते यतः । व्या० प्र०। 11 स्वात्मनि दु:खनिवर्तकस्य हेतोः । ब्या० प्र०। 12 भयलोभादिना आत्मदुःखनिवर्तको व्यभिचारो नास्तीति समर्थनं ग्रन्थेन । ब्या० प्र०। 13 पुनराह परः पुण्यविशेषवशादात्मदुःख निवर्तनपरैः पूरुषः हेतुर्युभिचारी स्यादित्युक्ते स्या० एतेनात्मनि करुणावत एव स्वदुःख निवर्तनकव्यवस्थापनद्वारेण व्यभिचारवाक्यं निराकृतम् । दि० प्र०। 14 करुणावत्त्वलक्षणसाध्याभावरूपतया। ब्या० प्र०। 15 यत एवम् । दि० प्र० । 16 आत्मनि । व्या० प्र०। 17 स्वसुख । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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