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प्रमाण का फल ]
तृतीय भाग
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[ बौद्धो भगवति करुणाबुद्धि मन्यते किन्तु जैनाचार्याः करुणाया मोहस्य पर्यायं कथयित्वा निषेधन्ति तथा
के वलिनि उपेक्षाफलं कथमिति स्पष्टयंति ] ननु करुणावतः परदुःख जिहासोः कथमुपेक्षा ? 'तदभावे कथं चाप्तिः ? इति चेन्न, तेषां मोहविशेषात्मिकायाः करुणायाः संभवाभावात् स्वदुःखनिवर्तनवदकरुणयापि वृत्तेरन्यदुःखनिराचिकीर्षायाम् । नन्वस्मदादिवद्दयालोरेवात्मदुःखनिवर्तनं युक्तम् । तथा हि, यो यः स्वात्मनि दुःखं निवर्तयति स स स्वात्मनि 'करुणावान्, यथास्मदादिः । तथा च योगी 'स्वात्मनि संसारदुःखं निवर्तयतीति 'युक्तिः । न चात्र हेतुविरुद्धोऽनकान्तिको वा, विपक्षे सर्वथाप्यभावात् बाधकप्रमाणसामर्थ्यात्, स्वसाध्याविनाभावसिद्धः । तथा हि, यः स्वाउनकी उपेक्षा है । संसार और उसके कारण हेय हैं अतः उनका त्याग किया जाता है, मोक्ष और उसके कारण उपादेय हैं उनको ग्रहण किया जाता है इसलिये "सिद्ध प्रयोजनत्व" हेतु भगवान् के प्रति असिद्ध नहीं है। [ बौद्ध भगवान् में करुणा बुद्धि मानता है किन्तु जनाचार्य कहते हैं कि करुणा मोह की पर्याय है
अतः केवली भगवान् के ज्ञान का फल उपेक्षा है यह बात स्पष्ट करते हैं। ] सौगत-भगवान करुणावान हैं पर के दुःख को दूर करने की इच्छा वाले हैं उनके उपेक्षा कैसे संभव है और उसके अभाव में आप्तपना भी कैसे संभव है ?
जैन-ऐसा नहीं कहना क्योंकि उन भगवान में मोह विशेषात्मक करुणा ही असम्भव है। स्वदुःख के दूर करने के समान अकरुणा से भी अन्य के दुःखों को दूर करने की इच्छा में प्रवृत्ति हो जाती है अर्थात् बिना करुणा के भी अपने दुःखों का दूर करना एवं पर के दुःखों को दूर करना होता है।
__ बौद्ध-दयालु ही अपने दुःख को दूर कर सकते हैं यह बात युक्त है। जैसे कि हम लोग दया से ही अपने दुःखों को दूर करते हैं । तथाहि । “जो-जो अपने दुःखों को दूर करता है वह-वह अपने प्रति करुणावान् हैं । जैसे हम लोग। और उसी प्रकार से योगीगण अपने संसार के दुःखों को दूर करते हैं यह युक्तियुक्त है। यहां यह हेतु विरुद्ध अथवा अनेकांतिक नहीं है। इस हेतु का अकरुणावान् विपक्ष में सर्वथा भी अभाव है क्योंकि बाधक प्रमाण की सामर्थ्य विद्यमान है और
1 करुणा । दि० प्र०। 2 योगी पक्षः स्वात्मनि करुणावान् भवतीति साध्यो धर्मः स्वात्मनि दुःखनिवर्तकत्वात् यो यः स्वात्मनि दुःखं निवर्तयति स स्वात्मनि करुणावान् यथाऽस्मदादिः स्वात्मनि दुःखनिवर्तकश्चायं तस्माच्चात्मनि करुणावान् । दि० प्र० । 3 केवली । ब्या० प्र०। 4 ह्यात्मनि । इति पा० । दि० प्र०। 5 विवादापन्नः स्वदुःखनिवर्तको न भवतीति साध्यो धर्मः स्वात्मन्यकरुणावत्त्वान् । यः स्वात्मन्यकरुणावान् न सुखदु:खं निर्वतयति । यथा द्वेषादेविषलक्षकः । दि० प्र०। 6 स्वात्मनि दुःखनिर्वतकत्वादिति । दि० प्र०। 7 साकल्येन कदेशेन । दि०प्र०। 8 स्वात्मनि दुःखनिर्वतकस्य । दि० प्र०। १ केवली। दि० प्र० ।
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