________________
५४४ ]
अष्टसहस्री
[ द० ५० कारिका १०२
वा । अथवा स्यात्सत्, स्वरूपादिचतुष्टयात्, स्यादसत्, पररूपादिचतुष्टयात् इत्यादि योजनीयम्। अथ 'प्रमाणफलविप्रतिपत्तिनिवृत्त्यर्थमाहुः
उपेक्षा फलमाद्यस्य 'शेषस्यादानहानधीः ।
पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा 'सर्वस्यास्य स्वगोचरे ॥१०२॥ कारिकापाठापेक्षया युगपत्सर्वभासनं केवलमाद्यं, तस्य 'व्यवहितं 'फलमुपेक्षा । कुत इति चेदुच्यते, सिद्धप्रयोजनत्वात्केवलिनां सर्वत्रोपेक्षा । हेयस्य संसारतत्कारणस्य हानादुपादेयस्य मोक्षतत्कारणस्योपात्तत्वात् सिद्धप्रयोजनत्वं नासिद्धं भगवताम् ।
इत्यादि रूप से सप्तभङ्गी घटित कर लेना चाहिये। अथवा वह तत्त्वज्ञान कथंचित् सत् है क्योंकि स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा रखता है । कथंचित् तत्त्वज्ञान असत् है क्योंकि पर रूपादि चतुष्टय की अपेक्षा रखता है । इत्यादि सप्तभंगी को यहाँ भी घटित करना चाहिये ।
उत्थानिका-अब प्रमाण के फल का विसंवाद दूर करने के लिये आचार्यश्री समंतभद्र स्वामी कहते हैं
केवलज्ञान प्रमाणरूप का, कहा उपेक्षा फल जानों। शेषज्ञान क्रमभावी का फल, ग्रहण त्याग बुद्धि मानों। अथवा क्रमभावी ज्ञानों का, कहा उपेक्षा फल यदि वा।
सब ज्ञानों का फल स्व-स्व, विषयक अज्ञान नाश होना ॥१०२॥ कारिकार्थ-केवलज्ञान का व्यवहित फल उपेक्षा, शेष, मति, श्रुत आदि चारों ज्ञानों का व्यवहित फल ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करना, छोड़ने योग्य को छोड़ना तथा उपेक्षा करना है। एवं इन पांचों ज्ञानों का ही साक्षात् फल अपने-अपने विषयभूत पदार्थों में अज्ञान का नाश होना ही है ॥१०२॥
कारिका पाठ की अपेक्षा से युगपत् सर्वभासि केवलज्ञान आद्य कहलाता है उसका फल उपेक्षा है।
प्रश्न-वह कैसे है ? उत्तर-केवली भगवान के सभी प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं अतएव सभी हेय और उपादेय में
1 ता । ब्या० प्र० । अथ प्रमाणानां प्रमाणसंख्यां प्रमाणस्वरूपं प्रमाणविषयञ्च विघटयित्वेदानी प्रमाणफल विवाद निराकरोति । दि० प्र.। 2 हेयोपादेय। दि० प्र०। 3 केवलस्य मत्यादेः । ब्या० प्र०14 अमुख्यम् । ब्या. प्र.15 औदासिन्यम् । दि.प्र.। 6 संसारावस्थायाम् । ब्या०प्र०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org -