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________________ ५२४ ] अष्टसहस्री [ अ०प० कारिका १०१ विशेषोपलम्भाभ्युपगमेपि भ्रान्तेनिश्चीयते नेति साधनं संप्रवर्तते इति वचनात् तद्व्यवसायवैकल्यं सिद्धमेव । तत्र च तद्व्यवसायवैकल्ये वा दानहिंसादिचित्ते क्वचिद्धर्माधर्मसंवेदनवत् परोक्षत्वोपपत्तेस्तत्त्रिरूपलिङ्गबलभाविनामपि विकल्पानामतत्त्वविषयत्वात्' कुतस्तत्त्वप्रतिपत्तिः ? 'मणिप्रदीपप्रभयोमणिबुद्ध्याभिधावतः । मिथ्याज्ञानाविशेषेपि विशेषोर्थ क्रियां प्रति ॥१॥ यथा, तथाऽयथार्थत्वेप्यनुमानावभासयोः । अर्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् ॥२॥' होता है" इस वचन से तो हे बौद्ध ! आपके वचन से ही आपके यहाँ दूषण आ जाता है । पुनः रूपादि षि व्यवसायरहित ही सिद्ध हो जाते हैं क्योंकि आपने प्रत्यक्ष को निर्विकल्प ही माना है। उस अनेकांत की सिद्धि में उसको व्यवसाय से रहित मानने पर तत्व की सिद्धि कैसे होगी ? अथवा दान, हिंसादि के चित्त रूप किसी में-ज्ञानक्षण में धर्म, अधर्म संवेदन के समान परोक्षपना हो जाता है । एवं त्रिरूपलिंग के बल से होने वाले भी विकल्पज्ञान अतत्त्व – अवस्तु को विषय करते हैं पुनः तत्त्व का ज्ञान कैसे हो सकेगा? अर्थात् प्रत्यक्ष तो निर्विकल्प होने से परोक्ष रूप ही हो गया तथा विकल्पज्ञान वस्तु को विषय नहीं करता है पुनः तत्त्व का बोध किससे होगा? बौद्ध (श्लोकार्थ)-जैसे मणि की प्रभा और दीपक की प्रभा में मणि की बुद्धि से दौड़ते हुये पुरुष के मिथ्याज्ञान समान होते हुए भी साक्षात् मणि और प्रदीप की प्राप्ति रूप-अर्थ क्रिया के प्रति भेद है ॥१।। तथैव अनुमान और अनुमानाभास में अयथार्थ-असत्यपना समान होते हुए भी क्षणिक रूप ग्राहक-अर्थक्रिया के निमित्त से प्रमाणता व्यवस्थित है ॥२॥ जैन-इस प्रकार से आपका मणि और दीपक को प्रभा का दृष्टांत भी आपके पक्ष का घाती है। मणि और दीपक की प्रभा का प्रत्यक्ष भी संवादक रूप से प्रमाणत्व को प्राप्त होने से आपके मान्य दो प्रमाणों में अन्तर्भूत न होने से आपके प्रमाण की संख्या को विघटित ही कर देता है । अर्थात् मणि प्रभा का प्रत्यक्ष एक तीसरा ही प्रमाण सिद्ध हो जाता है जो आपके प्रत्यक्ष, अनुमान इन दो प्रमाण रूप संख्या को समाप्त कर तीसरा बन बैठता है। पुनः "प्रमाण दो ही हैं" ऐसा अवधारण-निश्चय कैसे घटेगा? I मगा 1 इति । पाठा० । दि० प्र० । 2 रूपादिविशेष । ब्या० प्र० । 3 प्रत्यक्षस्य । ब्या० प्र०। 4 किञ्चात्र दूषणान्तरमभ्यूह्य तथाहि यत्रव जन येदेनां तत्रैवास्य प्रमाणतेति सौगतरुक्तत्वान्निविकल्पक नीलस्वलक्षणे प्रमाणं क्षणिकत्वादावप्रमाणमिति यत्प्रमाणं प्रमाणमेवेत्येकान्त त्यागः । दि० प्र० । 5 पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षाद्वयावृत्तिरिति त्रिरूपबलजातानामन्यापोहविषयानुमानानामपि अतत्त्वविषयात्सौगताभ्युपगतक्षणक्षयिलक्षणवस्तुनिश्चयः कुतो न कुतोपि । दि० प्र० । 6 प्रत्यक्षस्य प्रमाणाप्रमाणत्वं समर्थ्य तत्रा प्रतीयमानमद्वयक्षणिकादिकमनुमाने नापि प्रत्येतुं न शक्यत एवेत्याहुः त्रिरूपलिङ्गबलेनेति । दि० प्र० । 7 विकल्पो वस्तुनिर्भास इति वचनात् । अनुमानानाम् । दि० प्र० । 8 क्षणिकरूपः । दि० प्र०। 9 पुंसोः = अनुमानाभास = अनुमानस्य = सौगतीयं श्लोकद्व यम् । दि० प्र० । 10 अनुमानस्य । सौगतीयमिदंश्लोकद्वयम् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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