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अष्टसहस्री
[ द० प० कारिका १०१ देश एवेति नियता लोकव्यवस्थितिरिति ? उच्यते, तत्प्रकर्षापेक्षया व्यपदेशव्यवस्था गन्धद्रव्यादिवत् । यथा च प्रत्यक्षस्य संवादप्रकर्षात्प्रमाणव्यपदेशव्यवस्था प्रत्यक्षाभासस्य च विसंवादप्रकर्षादप्रमाणत्वव्यपदेशव्यवस्थिति: गन्धादिगुणप्रकर्षात्कस्तूरिकादेर्गन्धद्रव्यादिव्यपदेशव्यवस्था तद्व्यवहारिभिरभिधीयते'; तथानुमानादेरपि कथंचिन्मिथ्याप्रतिभासेपि 'तत्त्वप्रतिपत्त्यव प्रामाण्यमन्यथा चाप्रामाण्य मित्यनेकान्तसिद्धिः । एकान्तकल्पनायां तु नान्तर्बहिस्तस्वसंवेदनं व्यवतिष्ठत तथागतमते स्वयमद्वयादेईयादिप्रतिभासनाद्रपादिस्वलक्षणानां च 'तथै
विसंवादी है किन्तु चंद्रांश में विसवादी नहीं है तथैव प्रमाण भी प्रमाण, अप्रमाण दोनों रूप से संकीर्णता सहित है जैसे—निर्दोष नेत्र वाले व्यक्ति का चन्द्र सूर्योदय ज्ञान सर्वथा अविसंवादी इसलिये नहीं है कि वह उन्हें धरती से लगा हुआ समझ रहा है इस प्रकार से यह प्रमाण एवं अप्रमाण की संकीर्ण स्थिति है।
शंका-इस प्रकार से तो कहीं पर प्रमाण व्यपदेश ही है एवं कहीं पर अप्रमाण व्यपदेश ही है यह लोक व्यवस्था निश्चित कैसे हो सकेगी ?
जैन-उन संवाद एवं विसंवाद की प्रकर्षता की अपेक्षा से ही वह व्यपदेश व्यवस्था होती है गंध द्रव्यादि के समान । संवाद की प्रकर्षता से प्रत्यक्ष में 'प्रमाण' इस व्यपदेश को व्यवस्था है, एवं विसंवाद की प्रकर्षता से प्रत्यक्षाभास में 'अप्रमाण' इस व्यपदेश की व्यवस्था जैसे कि गंध गुण की प्रकर्षता से कस्तूरिका आदि द्रव्यों में गंधद्रव्यादि की व्यपदेश व्यवस्था उन व्यवहारी जनों के द्वारा कही जाती है । अर्थात् कस्तूरिका, केशर, कर्पूर आदि में रूप, रस, स्पर्श भी हैं फिर भी गंध की प्रकर्षता से वे गंधद्रव्य कहे जाते हैं तथैव विसंवाद अविसंवाद की प्रकर्षता से अप्रमाण, प्रमाण की व्यवस्था होती है।
उसी प्रकार से अनुमानादि भी कथंचित् मिथ्या प्रतिभास के होने पर भी तत्त्व की प्रतिपत्ति कराने से ही प्रामाण्य हैं अन्यथा-अतत्त्व की प्रतिपत्ति से अप्रामाण्य हैं इस प्रकार से अनेकांत की सिद्धि हो जाती है, किन्त एकांत की कल्पना करने पर तो आप बौद्धों के यहां अंतस्तत्त्व एवं ब ज्ञान की व्यवस्था नहीं बन सकती है। आपके यहां अद्वयादि-अंतस्तत्त्व-ज्ञानमात्र तथा आदि शब्द से निरंश परमाणु रूप वस्तु स्वयं द्वयादि-द्वैत आदि रूप से ही प्रतिभासित होते हैं एवं रूपादि स्वलक्षण बहिस्तत्त्व भी जैसे आप सौगतों ने वणित किया है वैसे ही वे नहीं दिखते हैं । अर्थात् बौद्ध
1 द्विचन्द्रज्ञाने । ब्या०प्र०। 2 अभिधीयते। दि० प्र.। 3 गन्धद्रव्य व्यापारिभिः । दि० प्र०। 4 वस्तु । व्या० प्र०। 5 यथार्थपरिज्ञाने । दि० प्र०। 6 अप्रतिपत्त्या । ब्या० प्र० । तत्त्वप्रतिपत्त्यभावे । दि०प्र० । 7 प्रमाणं प्रमाण मेवाप्रमाणमप्रमाणमेवेत्येकान्तकल्पनायाम् । दि० प्र०। 8 शक्तनमेवभाष्यं समर्थयन्ते भाष्यकाराः स्वयमिति । अन्तस्तत्त्वं न व्यवतिष्ठेतेति प्राक्तन भाष्येण सह सम्बन्धः । दि० प्र०। 9 बहिस्तत्त्वं न व्यवतिष्ठेत् । क्षणिकरूप । दि० प्र०।
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