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________________ ५१४ ] [ द० प० कारिका १०० बन्धानुरूपत्वेपि कामादिप्रभवस्य भावसंसारस्य द्रव्यादिसंसारहेतोः । प्रतिमुक्नीत रसिद्धिर्जीवानां शुद्ध शुद्धिवैचित्र्यादिति । अष्टसहस्त्री बन सकेगी । इसलिये यह बिल्कुल ठोक हो कहा है कि कर्मबंध के अनुसार होते हुए भी रागादि की उत्पत्ति रूप भावसंसार द्रव्यादि संसार का हेतु है अतः जीवों का मुक्ति और संसार सिद्ध है क्योंकि शुद्धि और अशुद्धि की विचित्रता देखी जाती है । "ईश्वर सृष्टिकर्तृत्व के खण्डन का सारांश " रागादिकों की उत्पत्ति भाव संसार रूप से नाना प्रकार की है वह ज्ञानावरणादि कर्मबंध के अनुसार होती है तथा वह कर्म अपने हेतुभूत रागादि परिणामों से ही होता है अतः रागादि से उत्पन्न हुआ यह भाव संसार एक स्वभाव वाले महेश्वर के द्वारा किया हुआ नहीं है क्योंकि उसके कार्यरूप सुख-दुःखादिकों की विचित्रता देखी जाती है जैसे अनेक शालि आदि के अंकुरे अनेक शालि आदि ari से होते हैं । नैयायिक – "तनुकरण भुवनादिक एक स्वभाव वाले बुद्धिमान ईश्वर के द्वारा किये जाते हैं क्योंकि वे कार्य हैं रचना सन्निवेश विशेष रूप हैं इत्यादि । " जैन - एक स्वभाव रूप ईश्वर से अनेक कार्यसृष्टि मानना असंभव है तथा यदि ईश्वर की इच्छा से सृष्टि मानों तो वह इच्छा नित्य एक स्वभाव वाली है या अनित्य अनेक स्वभाव वाली ? यदि प्रथम पक्ष लेवो तो नित्य एकरूप इच्छा से संसार रूप विचित्र कार्यों की उत्पत्ति कैसे होगी ! यदि दूसरा पक्ष लेवो तब तो वह क्रम से होती है या युगपत ? यदि युगपत् इच्छा मानों तो एक साथ अनेक कार्य उत्पन्न होने से अव्यवस्था हो जावेगी । यदि क्रम से मानों तो कहीं-कहीं एक साथ कुछ कार्य देखे जाते हैं वे दुर्घट हो जावेंगे । तथा उस नित्य महेश्वर से अनित्य इच्छा का सम्बन्ध भी कैसे होगा ? प्रश्न यह उठता है कि नित्य एक स्वभाव वाले ईश्वर से उस सिसृक्षा का कोई उपकार भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न कहो तो ईश्वर भी नित्य नहीं रह सकेगा । यदि भिन्न कहो तो सम्बन्ध असम्भव होने पर उपकार भी असम्भव है । यदि उपकारांतर की कल्पना करो तो 1 प्राक्तनद्रव्यसंसारकारणको भावसंसारः द्रव्यसंसारोपि प्राक्तनभावसंसारकारणकः । दि० प्र० । 2 एतत् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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