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________________ जीव की भव्य अभव्य व्यवस्था प्रमाण का लक्षण ] तृतीय भाग [ ५१३ पर्यनुयोक्तव्याः, तेषामतर्कगोचरत्वात् । ननु प्रत्यक्षेण प्रतीतेथे स्वभावैरुत्तरं वाच्यं सति पर्यनुयोगे, न पुनरप्रत्यक्षे, अतिप्रसङ्गादिति चेन्न, अनुमानादिभिरपि प्रतीते वस्तुनि भावस्वभावैरुत्तरस्याविरोधात् प्रत्यक्षवदनुमानादेरपि प्रमाणत्वनिश्चयात्। ततः परमागमात्सिद्धप्रामाण्यात् प्रकृतजीवस्वभावाः प्रतीतिमनुसरन्तो न तर्कगोचरा यतः पर्यनुयुज्यन्ते' , तर्कगोचराणामप्यागमगोचरत्वेन पर्यनुयोगप्रसङ्गात् । तद्वत्प्रत्क्षविषयाणामपि । इति न प्रत्यक्षागमयोः स्वातन्त्र्यमुपपद्येत तर्कवत् । तदनुपपत्तौ च नानुमानस्योदयः स्यात्, मिप्रत्यक्षादेः 1 प्रतिज्ञायमानागमार्थस्य च प्रमाणान्तरापेक्षत्वादित्यनवस्थानात् । ततः12 सूक्तं, कर्म जैन उसी प्रकार का स्वभाव है ऐसा हम कहते हैं क्योंकि पदार्थों के स्वभाव में प्रश्न करना ठीक नहीं है । वस्तु का स्वभाव तर्क का विषय नहीं है। योग - प्रत्यक्ष से प्रतीत पदार्थ में तो यदि प्रश्न होता है तब "स्वभाव से ही ऐसा है" यह उत्तर दे देना उचित है किन्तु अप्रत्यक्ष में ऐसा उत्तर देना ठीक नहीं है। अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जावेगा। __ जैन-ऐसा नहीं कहना । अनुमानादि से भी जानो गई वस्तु में "पदार्थ का ऐसा ही स्वभाव है" ऐसा उत्तर देना विरुद्ध नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष के समान अनुमानादि को भी हमने प्रमाणभूत माना है । इसीलिये प्रमाणसिद्ध परमागम से भव्य एवं अभव्य रूप प्रकृत में आये हुए जीव के स्वभाव प्रतीति का अनुसरण करते हुए तर्क के विषय नहीं हैं कि जिससे उनमें प्रश्न उठाया जा सके। अर्थात् स्वभाव में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है, अन्यथा तर्क के विषयभूत पदार्थों में भी आगम के विषय रूप से प्रश्न उठाने का प्रसंग आ जावेगा। उसी प्रकार से प्रत्यक्ष के विषयभूत पदार्थों में भी प्रश्न उठते ही रहेंगे । अर्थात् यह अग्नि उष्ण क्यों है तो यह जल ठंडा क्यों है इत्यादि । पुनः इस प्रकार से तो प्रत्यक्ष और आगम स्वतंत्र सिद्ध नहीं हो सकेंगे तर्क के समान । किन्तु ये दोनों स्वतन्त्र सिद्ध हैं एवं दोनों को स्वतन्त्र न मानने पर तो अनुमान भी उदित नहीं हो सकेगा क्योंकि धर्मी प्रत्यक्षादि और प्रतिज्ञायमान आगम का अर्थ प्रमाणान्तर की अपेक्षा रखने लगेंगे पुनः कुछ भी व्यवस्था नहीं 1 विचारागोचरत्वात् । व्या०प्र० । भावस्वभावानामनुमान गम्यत्वात । दि०प्र०। 2 परोक्षज्ञानेन प्रतीतथ याद कश्चित्परिपच्छति तं तदा स्वभावरुत्तरं वाच्यं न वाच्यं चेत्तदातिप्रसंगो भवति । अन्यथा । दि० प्र० । 3 यथा प्रत्यक्षेण । दि० प्र० । 4 विरोधो नास्ति यतः । दि० प्र०। 5 सत्यभूतात् । दि.प्र.1 6 शुद्धयशुद्धी । दि० प्र० । 7 आगमगोचरत्वेन पर्यनयोगप्रसंगः । दि०प्र०। 8 तर्कागमयोरन्यतरस्य प्राधान्याप्राधान्यनियमाभावात् । दि०प्र० । 9 यथानुमानस्य । दि० प्र० । विचारवदित्यपि प्रसंगापादनम् । ब्या० प्र० । 10 पक्षहेतुदृष्टान्तादेः । हेतुदृष्टान्तावादिशब्देन । दि० प्र० । 11 पक्षीक्रियमाणः । निश्चीयमानः । अनित्यत्वादः। दि० प्र०। 12 शद्धयशुद्धी जीवाना शक्ती यतः । ब्या०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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