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ईश्वर सृष्टि कर्तृत्व खंडन ]
तृतीय भाग
[ ५१५ अनवस्था आ जाती है, यदि समवाय से महेश्वर की इच्छा है ऐसा कहोगे तो भी एक स्वभाव ईश्वर में समवायित्व, निमित्तकारणत्व आदि नाना स्वभाव विरुद्ध हैं।
तथा यदि महेश्वर की इच्छा को एक मानों तो एक साथ सभी कार्यों की उत्पत्ति का प्रसंग आ जाने से सभी कार्य नाना प्रकार के नहीं हो सकेगे। अच्छा यह तो बताओ कि वह अनित्य इच्छा महेश्वर की इच्छा के बिना होती है या महेश्वर की इच्छापूर्वक ? यदि प्रथम पक्ष मानें तो वे तनुआदि कार्य भी उस सिसृक्षा अपेक्षा को न करके स्वयं ही उत्पन्न होते हैं ऐसा मान लो क्या बाधा है ? यदि बुद्धिपूर्वक कहो तो वह ईश्वर की बुद्धि नित्य एक स्वभाव वाली है वह अनेक सिसृक्षा को उत्पन्न करने में हेतु है तो क्रम से या युगपत् ?
नैयायिक पूर्व-पूर्व की सिसृक्षा के निमित्त से उत्तरोत्तर सिसृक्षा उत्पन्न होती है वह नित्य एक स्वभाव वाले ईश्वर से विरुद्ध नहीं है क्योंकि कार्यकारण प्रवाह अनादि हैं अतः क्रम से सृष्टि कार्य होते रहते हैं।
जैन- ऐसा मानने पर तो एक स्वभाव वाले महेश्वर का ज्ञान भी एक है उससे पूर्व-पूर्व सिसृक्षा की अपेक्षा नहीं बनेगी, अन्यथा महेश्वर के ज्ञान को अनित्य मानों, पुनरपि भिन्नाभिन्न आदि प्रश्नों से अनेक दोष आ जावेंगे । अतएव ईश्वर को सृष्टि का निमित्तकारण मानने पर आकाश, दिशा, काल आदि भी निमित्त कारण बन जावेंगे।
___ यदि कहो कि ईश्वर का ज्ञान अनित्य एवं असर्वगत है इसलिये देशकाल से व्यतिरेक सिद्ध होने से वह 'तनुकरण भुवनादि में' निमित्तकारण है, तब तो आपका ईश्वर कदाचित् क्वचित् ज्ञान से रहित होने से असर्वज्ञ हो जावेगा। यदि सर्वदा सर्वज्ञ मानों तो ज्ञान अनित्य है यह कथन असम्भव है।
नैयायिक-महेश्वर एवं उसकी इच्छा यद्यपि एक स्वभाव वाली हैं तथापि कर्मों की विचित्रता से रागादि दोषों से उत्पन्न होने वाला संसार भी विचित्र प्रकार का है।
जैन-तब तो कर्मों की विचित्रता से ही यह रागादि भाव रूप विचित्र संसार सिद्ध हो गया। अत: “कामादि प्रभवश्चित्र: कर्मबंधानुरूपतः" यह जैन दर्शन ही प्रमाणभूत सिद्ध हो गया। क्योंकि आपके ईश्वर के साथ सृष्टि का कोई अन्वय व्यतिरेक नहीं घटता है।
यह आत्मा ही धर्म-अधर्म के द्वारा शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, इच्छादि कार्यों को उत्पन्न करने वाला सिद्ध है क्योंकि बुद्धिमान् ईश्वर कारण के बिना भी अनुक्रम से प्रवृत्ति, सन्निवेशविशेष, कार्यत्व, अचेतनोपादानत्व, अर्थक्रियाकारित्व आदि हेतु बन जाते हैं अतः इन हेतुओं से ही पृथ्वी आदि सृष्टि बुद्धिमत् कारणपूर्वक नहीं है क्योंकि आपने ईश्वर को शरीररहित माना है एवं
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