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________________ ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन ] तृतीय भाग [ ५०६ नुमानबाधितः स्यात्, 'अकृत्रिमं जगत्, दृष्टकर्तृ कविलक्षणत्वात् खादिवत्' इत्यनुमानस्य तबाधकस्यान्यत्र समर्थितत्वात् । इति सूक्तं, नेश्वरकृतः संसार इति । ननु यदि कर्मबन्धानुरूपतः संसार स्यान्न तहि केषांचिन्मुक्तिरितरेषां संसारश्च, 'कर्मबन्धनिमित्ताविशेषादिति चेन्न, तेषां शुद्धयशुद्धितः प्रतिमुक्तीतरसंभवादात्मनाम् । न हि जीवाः शश्वदशुद्धित एव व्यवस्थिताः स्याद्वादिनां याज्ञिकानामिव, कामादिस्वभावत्वनिराकरणात्, तत्स्वभावत्वे कदाचिदौदासीन्योपलम्भविरोधात् नापि शुद्धित एवावस्थिताः' कापिलानामिव', प्रकृतिसंसर्गेपि तत्र कामाधुपलम्भविरोधात्, प्रकृतावेव कामाधुपलम्भे तथा आपका पक्ष अनुमान से बाधित हो जावेगा । “यह जगत् अकृत्रिम है- क्योंकि दृष्टकर्तृक से विलक्षण है आकाशादि के समान ।" इस प्रकार के अनुमान से आपका पक्ष बाधित है इसका समर्थन अन्यत्र-श्लोकवातिकालंकार ग्रंथ में किया गया है। इसलिये यह बात बिल्कुल ठीक है-"ईश्वरकृत संसार नहीं है।" शंका - यदि कर्मबन्ध के अनुसार ही संसार होगा तब तो किन्हीं को मुक्ति एवं अन्यजनों को संसार नहीं हो सकेगा क्योंकि कर्मबन्ध का निमित्त तो सब जीवों में समान ही है। __समाधान-ऐसा नहीं कहना क्योंकि उन जीवों में शुद्धि और अशुद्धि के भेद से मुक्ति और संसार के प्रति भेद सिद्ध है अर्थात् मिथ्यादर्शनादि परिणामात्मक अभिप्राय अशुद्धि है तथा सम्यग्दर्शनादि परिणामात्मक भाव शुद्धि है। __ मीमांसकों के समान हम स्याद्वादियों के यहां सदैव जीव अशुद्ध रूप से ही व्यवस्थित रहते हों ऐसा नहीं है क्योंकि रागादि स्वभाव का उसकी विपरीत प्रवृत्ति से निराकृत करना शक्य है। जीवों का रागादिभाव स्वभाव ही है ऐसा मान लेने पर तो कदाचित् भी उदासीनता-तरतम भाव को उपलब्धि का ही विरोध हो जावेगा तथा सांख्यों के सिद्धान्त के समान सर्वथा सभी जीव शुद्ध ही बने रहते हैं ऐसा भी नहीं है अन्यथा प्रकृति का संसर्ग होने पर भी उन जीवों में रागादि भावों की उपलब्धि ही नहीं हो सकेगी। यदि आप कहें कि रागादि विकारभाव प्रकृति में पाये जाते हैं तब तो पुरुष की कल्पना ही 1 पक्ष । दि० प्र० । 2 एवम् । ब्या० प्र० । 3 कारिकातुरीयपादं व्याख्याति । ब्या० प्र० । 4 मुक्तेः प्राक् । ब्या० प्र०। 5 मुक्तावस्थात: प्राक् । ब्या० प्र०। 6 अवश्यंभाविनी मुक्तिः । ब्या०प्र०। 7 कामादौ । व्या० प्र० । था कामादिस्वभावत्वे सति तदा कदाचनमध्यस्थभाव न दश्यते स च दश्यत एवाने केषां योगिनाम् दि० प्र०। 8 सम्यग्दर्शनादिपरिणामात्मिकाभिसंधितः । ब्या० प्र०। १ शुद्धित एव व्यवस्थिताः । इति पा ब्या० प्र० । स्याद्वादिनाम् । ब्या० प्र० । 10 सांख्यानाम् । दि० प्र०। 11 न केवलं प्रकृतिसंसर्गाभावे । ब्या० प्र० 12 आत्मनि । दि० प्र०। 13 ननु च कामाधुपलंभः पुरुष नास्ति प्रकृतावेव कथं तदुपलंभविरोध इत्याह । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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