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________________ ५१० ] अष्टसहस्त्री पुरुष कल्पना वैयर्थ्यात्, तदुपभोगस्यापि तत्रैव' संभवात् । न ह्यन्यः कामयतेऽन्यः काममनुभवतीति वक्तुं युक्तम् । नापि सर्वे संभवद्विशुद्धय एव जीवाः प्रमाणतः प्रत्येतुं शक्याः ', संसारिशून्यत्वप्रसङ्गात् । किं तर्हि ? शुद्धयशुद्धिभ्यां व्यवतिष्ठन्ते, 'जीवास्ते शुद्धयशुद्धितः ' इति वचनात् । ततः " शुद्धिभाजामात्मनां प्रतिमुक्तिरशुद्धिभाजां संसारः । केषांचित् प्रतिमुक्तिः स्वकाललब्धौ स्यादिति प्रतिपत्तव्यम् । के पुनः शुद्ध शुद्धी जीवानामित्याहुः, - [ द० प० कारिका १०० शुद्धयशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवत् । तयोर्व्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचरः ॥१००॥ साद्यनादी व्यर्थ हो जाती है । पुनः रागादि के निमित्त से होने वाले सुख-दुखों का उपभोग भी प्रकृति में ही सम्भव होगा क्योंकि अन्य - प्रकृति तो रागद्वेषादि विकार को प्राप्त होवे एवं अन्य पुरुष उसका अनुभव करे यह कहना भी युक्त नहीं है । तथा सभी जीव विशुद्धिवान् ही हैं ऐसा भी किसी प्रमाण से निर्णय करना शक्य नहीं है अन्यथा यह जगत् संसारी जीवों से शून्य ही हो जावेगा । शंका- तो कैसे-कैसे जीव हैं ? समाधान-शुद्धि और अशुद्धि के निमित्त से जीव दो प्रकार के हैं "जीवास्ते शुद्धयशुद्धितः” ऐसा कारिका का वचन है । अतएव शुद्धिमान् -शुद्धि को प्राप्त होने वाले जीवों की मुक्ति हो सकती एवं अशुद्धिमान् जीवों का संसार है । उन शुद्धिमान् जीवों में भी किन्हीं - किन्हीं की ही मुक्ति अपनीअपनी काल लब्धि के अनुसार होती है । काललब्धि का वर्णन 'लब्धिसार' ग्रन्थ से देख लेना चाहिये । संक्षेप से सवार्थसिद्धि के द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में भी कहा गया है वहां से देख लेना चाहिये । उत्थानिका - जीवों की वह शुद्धि और अशुद्धि क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री समंतभद्र स्वामी कहते हैं Jain Education International भव्य अभव्य कहीं दो शक्ती, पकने योग्य न पकने योग्य । उड़द शक्तिवत् इन दोनों की, अभिव्यक्ती है सादि अनादि || सम्यक्त्वादि प्रकट भव्यों के, अभव्य कोरडू मूंग समान । वस्तु स्वभाव तर्क करने का, विषय नहीं हो सके प्रधान ॥ १०० ॥ कारकार्थ - जीवों की ये शुद्धि और अशुद्धि रूप दो शक्तियां मूंग आदि के पकने योग्य एवं न पकने योग्य शक्ति के समान हैं पुनः इन दोनों की शक्ति भव्य एवं अभव्य जीवों की अपेक्षा से सादि एवं अनादि है वस्तु का यह स्वभाव तर्क के अगोचर है ।। १०० ।। 1 कामादि । ब्या० प्र० । 2 प्रकृतावेव । ब्या० प्र० । 3 सुखम् । दि० प्र० । 4 अन्यथा । ब्या० प्र० । 5 कारिकायाः । दि० प्र० । 6 व्यवस्थानात् । व्या० प्र० 7 प्रतिमुक्तिरवश्यंभाविनी । ब्या० प्र० । 8 आत्मनो योग्यते । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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