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________________ ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन ] तृतीय भाग [ ५०५ कथमचेतन:' कर्मबन्धः कामादिवैचित्र्यं कुर्यात् कामादिर्वा चेतनस्वभावः कथमचेतनं कर्मवैचित्र्यमिति' 'तत्स्वभावस्योपालम्भः प्रवर्त्यते तथा 'कथमचेतनमुन्मत्त कादिभोजनमुन्मादादिवेचित्र्यं विदधीत प्राणिनामुन्मादादिर्वा चेतनः कथमचेतनं मृदादि रूपवैचित्र्यमित्यपि 'तत्स्वरूपोपलम्भः किमिति प्रसज्यमानो निवर्त्यते ? तथा' दृष्टत्वादिति चेत्तत एव प्रकृतस्वभावोपालम्भोपि निवर्त्यतां, तथानुमितत्वात् । सकेगा। अर्थात् प्रश्न यह होता है कि अचेतन कर्म प्राणियों को स्वर्गादि की प्राप्ति कैसे करावेंगे ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि युक्ति से यह बात सिद्ध कर दी गई है कि "अचेतन कर्म बंध से रागादि परिणाम एवं उन परिणामों से कर्मबंध की विचित्रता होती है यह वस्तु का ही स्वभाव है इसमें उलाहना नहीं दी जा सकती है। अचेतन कर्मबंध रागादि परिणामों की विचित्रता को कैसे करेंगे अथवा चेतन स्वभाव रागादि परिणाम अचेतन रूप विचित्र कर्मबंध को कैसे करेंगे? इस प्रकार से जैसे आप वस्तु के स्वभाव में उपालम्भ उठावेंगे वैसे ही हम भी आप से पूछते हैं कि अचेतन उन्मत्तक-मादकोद्रव आदि का भोजन जीव में उन्मादि विचित्रता को कैसे करता है ? अथवा प्राणियों के चेतन रूप उन्मादि परिणाम अचेतन मिट्टी आदि में रूप की विचित्रता को कैसे करते हैं ? अर्थात् धतूरे के खाने से सभी मिट्टी आदि वस्तुयें पीली-पीली ही दिखने लगती हैं यह कैसे हो सकता है ? इस प्रकार से उन-उन वस्तुओं के स्वभाव में भी प्रश्न उठते ही चले जावेंगे उनका निवारण कौन कर सकेगा? योग-यह मादक आदि वस्तुओं का स्वभाव तो उसी प्रकार से देखा जाता है। जैन-उसी प्रकार से प्रकृत-रागादि भाव एवं कर्म बंध का स्वभाव भी वैसा ही देखा जाता है अतएव आपके प्रश्नों को गुंजाइश नहीं है क्योंकि रागादिभाव एवं कर्मबंध ये परस्पर में अचेतन और चेतन करण रूप से अनुमान के द्वारा जाने जाते हैं। योग-इस प्रकार से ईश्वर भी अनुमान ज्ञान से जाना जाता है अतः उलाहना का प्रसङ्ग नहीं है। 1 आह परः हे स्याद्वादिन् धतूरकस्वभावदृष्टान्ते दूषणं नास्ति कस्मात्तथा विकारकारणादिसर्वलोके प्रतीतं यतः इति चेत् स्याद्वादी वदति तथा दृष्टत्वादेव दृष्टान्त दाष्टीतेपि भावस्वभावोपालंभोपि निवार्यतां त्वया तथानुमितत्वाच्च दूषणं निवार्यताम् = पुनराह पर एवमीश्वरस्यापि प्रागनुमितत्वादेव उपालभनिवृत्तिरस्तु इति स्या० इति त्वया न शंकनीयम् । कस्मात्, ईश्वरानुमानस्य नानादूषणविरुद्धत्वात् । दि० प्र०। 2 कुर्यात् । ब्या० प्र०। 3 कामादिकर्मबन्धयोः । ब्या० प्र०॥ 4 धत्तर । दि० प्र०। 5 आदिशब्देन मदिरामदनकोद्रवादिकं गृह्यते । ब्या० प्र० । 6 योजन । इति पा० । दि० प्र०। ब्या० प्र०। 7 उन्मत्तादि । ब्या० प्र०। 8 प्रवर्तनरूपेण । ब्या० प्र० 9निर्वत्यर्त इत्यध्याहारः । दि० प्र० । 10 तथा कर्मभ्यः कामादयो न भवन्तीति उपालंभः निवर्त्यतां तथा दृष्टत्वात् । दि० प्र०। 11 कामादिकर्मबन्धप्रकारेण । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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