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अष्टसहस्री
[ द० प० कारिका ६६
तनुकरणादयः प्राणिनां कर्मणो वैचित्र्यादिति चेतहि कर्मणामपि तेषामीश्वरज्ञाननिमित्तत्वे समानप्रसङ्गः-तान्यपि प्रहीणतनुकरणादिकारणानि मा भूवन्निति । तदनिमित्तत्वे तनुकरणादेरपि तन्निमित्तत्त्वं मा भद्विशेषाभावात् । एवं चार्थक्रियादेरपि ताभ्यामैकान्तिकत्वं कर्मणः स्थाणोश्चार्थक्रियाकारित्व-स्थित्त्वाप्रवर्तनयोश्चेतनाधिष्ठानाभावेपि भावात् । ततः कर्मबन्धविशेषवशाच्चित्राः कामादयस्ततः' कर्मवैचित्र्यमिति स्थितम् । नहि 10भावस्वभावोपालम्भ:11 करणीयोन्यत्रापि तथैव तत्प्रसङ्गानिवृत्तेः। यथैव हि
यौग-निकृष्ट शरीर इंद्रियाँ आदि प्राणियों के कर्मों की विचित्रता से ही होती है।
जैन- यदि ऐसी बात है तब तो वे कर्म भी तो उस ईश्वर के ज्ञान के निमित्त से ही हये हैं उन कर्मों को ईश्वर ने निकृष्ट क्यों बनाया ? इत्यादि शंकायें समान ही होगी। वे कर्म भी निकृष्ट शरीर इन्द्रियादिकों के कारण न होवें क्योंकि कर्मों को बनाने में भी वह ईश्वर ही तो निमित्त है।
यदि आप कहें कि कर्मों को बनाने में ईश्वर निमित्त नहीं है तब तो वह ईश्वर शरीर इन्द्रियादिकों का भी निमित्त मत होवे, इन दोनों जगह में कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार से ईश्वर और कर्मों को चेतन से अधिष्ठित न मानने पर अर्थक्रियादि हेतु भी उन ईश्वर और कर्म से ऐकांतिक हो जावेंगे क्योंकि ईश्वर और कर्म में अर्थक्रियाकारित्व एवं क्रम से प्रवृत्ति ये दोनों चेतन से अधिष्ठित न होने पर भी विद्यमान हैं।
इसलिये कर्मबन्ध विशेष के निमित्त से नाना प्रकार के कामादि रागादि होते हैं और उन रागादिभावों से विचित्र-विचित्र कर्मबन्ध होता है । यह पद्धति बीजांकुर न्याय के समान है यह अनुमान से सिद्ध हो गई। भाव स्वभाव-पदार्थों के स्वभाव में किसी प्रकार की उलाहना आप नहीं दे सकते हैं अन्यथा अन्यत्र ईश्वर आदि में भी उसी प्रकार से उलाहना का प्रसङ्ग दूर नहीं किया जा
1मान्यपीश्वरनिमित्तकानि भवन्ति न भवन्ति चेतहि दूषणं समानमेव । दि० प्र० । 2 तहि तानि कर्माण्यपि हजरज्ञानं निमित्तकारणं येषां तानीश्वरज्ञाननिमित्तकान्यनिमित्तकानि वेति विचारः प्रथमपक्ष ईश्वर ज्ञानकर्मणां तल्य प्रसंगः कथं समानप्रसंग इत्युक्त आह । यथा बुद्धिमानीश्वरः प्राणिनां प्रहीनत नुकारणं नास्ति । तहि कर्माण्यनिमित्तकारणानि मा भवन्तु द्वितीयपक्षे कर्मणामीश्वरज्ञानाऽनिमित्तत्वे स्थितितनुकरण प्रमुखस्यापि ज्ञाननिमित्तत्वमा भवतु । कस्मात् । उभयत्रेश्वरज्ञानकर्मसु निमित्त कारण त्वेन कृत्वा विनाशाभावात् = किञ्चवं सति हे ईश्वरवादिन् । अर्थक्रियादेरपि तव हेतोः ताभ्यां कर्मेश्वराभ्यां व्यभिचारित्वं घटते। कर्म स्थाणश्च द्वौ यद्यपि चेतनाधिष्ठितौन स्तः । तथापि तयोरर्थक्रियाकारित्वं स्थित्वा प्रवर्तनञ्च घटते यस्मात् । दि० प्र० । 3 बसः । दि० प्र० । 4 ईश्वरज्ञानम् । ब्या०प्र० । 5 निमित्तकारणस्योभयत्राविशेषात् । ब्या० प्र० । 6 ईश्वरज्ञानकर्मणां विशेषाभावात् । दि० प्र० । 7 यत्र यत्र चेतनाधिष्ठितत्वं तत्र स्थित्वा प्रवर्तनार्थक्रिया इति व्याप्तेरभावात् । ब्या० प्र० । 8 ईश्वरज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नादिनिमित्तं नास्ति यतः । ब्या० प्र०। 9 कामादिभ्यः । ब्या० प्र०। 10 पदार्थस्वभाव उपालम्भो न कर्तव्यः । ब्या० प्र० । 11 ता । दूषणम् । ब्या० प्र० । 12 भावस्वभावप्रकारेण । व्या० प्र०। 13 अचेतनाकर्मबंधात कामादिवैदिव्यप्रकारेण कामादेश्चेतनादचेतनकर्मवैचित्र्यप्रकारेण । ब्या० प्र० ।
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