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________________ ( ५७ ) इसका अर्थ है-जिनेन्द्र भगवान् के मुखकमल से निकली हई जो वाणी है, वह भव्यजीवों को हितकर उपदेश देने में माता के समान ही है । वह भव्यों के अनन्त दोषों को भी नष्ट करने में समर्थ है, ऐसी वह जिनवाणी मुझे उत्तम बोधि-रत्नत्रय का लाभ प्रदान करे । जिनेन्द्र वाणी के प्रति महान् श्रद्धा का द्योतक उपर्युक्त श्लोक टीकाकी के पवित्र भावों का परिज्ञान कराता है । वास्तव में ऐसी श्रद्धायुक्त महान् आत्माएं ही अनेकान्तमयी कृतियों का विधिपूर्वक अनुवाद कार्य कर सकती हैं। अष्ट सहस्री ग्रन्थ तो स्वयं रत्नाकर-समुद्र के सदृश है, जिसमें अनेक बहुमूल्य रत्न भरे हुए हैं। श्रीविद्यानंदिस्वामी ने इसमें यह भी बतलाया है कि "मंत्रों की उत्पत्ति जिनेन्द्र भगवान के वचनों से ही होती है, अन्य वचनों से नहीं।" इसी ग्रन्थ के पृष्ठ ३६६ पर इस विषय का खुलासा है । यथा "वैदिका एव मन्त्राः परत्रोपयुक्ताः शक्तिमन्त इत्यप्ययुक्तं, प्रावचनिका एव वेदेऽपि प्रयुक्ता इत्युपपत्तैस्तत्र भूयसामुपलम्भात् समुद्राधाकरेषु रत्नवत् ।' यहाँ पर मीमांसक मतानुयायी किसी व्यक्ति की शंका हैमीमांसक-वैदिक मंत्र ही अन्यत्र प्रयोग में लाने पर शक्तिमान देखे जाते हैं ? जैन-यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि वे मंत्र प्रावच निक-जिनागम में ही कहे गए हैं और वे ही वेद में भी प्रयुक्त हैं, यह बात व्यवस्थित है । क्योंकि हमारे यहाँ जिनप्रवचन में अनेक प्रकार से वे मंत्र उपलब्ध हो रहे हैं, जैसे कि समुद्रादि खानों में ही रत्नों की उपलब्धि होती है। कितने ही रत्न राजकुल आदि में उपलब्ध होते हैं, वे वहीं के नहीं हैं, किन्तु वे समुद्र आदि से ही लाए जाते हैं। समूद्रादि में ही उनकी उत्पत्ति सिद्ध है, क्योंकि बहलता से वहाँ पर उनकी उत्पत्ति देखी जाती है। उसी प्रकार से जिन प्रवचन के एकदेश-अंशरूप विद्यानुवाद नामक दसवें पूर्व से ही सम्पूर्ण मंत्रों की उत्पत्ति होती है किन्तु उसके लवमात्र वेद से उन मंत्रों की उत्पत्ति नहीं है। इस प्रकार से हम यूक्तियुक्त समझते हैं । इस विषयक विशेष प्रकरण पृ० ३६७ से दृष्टव्य है। "मत्रि" धातु गुप्त भाषण अर्थ में है, जिसे गुरुमुख से ही प्राप्त करने की आगम में आज्ञा है। इसी 'मन्त्रि धातु से मन्त्री शब्द बना है । मन्त्री ही राजा को गुप्त सलाह प्रदान कर राजगद्दी का सन्मान बढ़ाता है। जिस राजा का मन्त्री सुयोग्य नहीं होता, उस राज्य की कीर्ति धूमिल हो जाती है तथा राजा को ऐसे मन्त्रियों से सदैव खतरा बना रहता है । उसी प्रकार से मन्त्रों का ज्ञाता भी यदि सदाचारी सुयोग्य मानव होता है, तभी उसे मत्रों की सिद्धि हो सकती है, अन्यथा वे मन्त्र उसे हानिकारक भी हो सकते हैं। मन्त्रशास्त्रों को मिथ्या कहने वाला प्राणी कभी भी सम्यग्दष्टि नहीं हो सकता है, क्योंकि द्वादशांग रूप जिनवाणी से बहिर्भूत संसार का कोई भी विषय नहीं है । कहा भी है सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभि व हन्यते । आज्ञासिद्ध तु तग्राह्य नान्यथावादिनो जिनाः ॥ अर्थात् अदृष्ट पदार्थों पर भी श्रद्धा करना आज्ञा सम्यक्त्व है, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् कभी भी अन्यथावादी नहीं हो सकते। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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