________________
( ५८ )
११४वीं कारिका में आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने इस ग्रन्थ के फल को बतलाया है। इस ग्रन्थ में __ इन समस्त कारिकाओं का हिन्दी पद्यानुवाद मात्र नमूने के तौर पर यहाँ मैं उद्धृत कर रही हूं।
हित के इच्छुक भव्यजनों को, सत्य असत्य बताने को। सम्यक मिथ्या उपदेशों के, अर्थ विशेष समझाने को। इस प्रकार से रची गई यह, आप्त समीक्षा को करती।
कुशल "आप्तमीमांसा" स्तुति यह "सम्यक्ज्ञानमती" करती ॥११४॥ इसकी टीका में श्री अकलंकदेव की अष्टशती भी उपर्युक्त भावों की पुष्टि करती हुई बताती है। यथा
"अभव्यानां तदनुपयोगात् । तस्वेतरपरीक्षा प्रति भव्यानामेव नियताधिकृतिः।"
इसका अर्थ यह है कि "उस मोक्ष एवं मोक्ष के कारणों की इच्छा करने वाले भव्य जीवों के लिए ही यह है न कि मोक्ष की इच्छा न करने वाले अभव्यों के लिए है। क्योंकि उन अभव्यों के लिये वह कुछ भी उपयोगी नहीं है कारण कि तत्व और अतस्व की परीक्षा के प्रति भव्यों को ही निश्चित अधिकार है। .. श्री विद्यानंदि स्वामी ने अष्टसहस्री की टीका समापन करते हुए स्वयं इसे "कष्टसहस्री" संज्ञा से सम्बोधित किया है-- कष्टसहस्रीसिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् । शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्ति वर्धमानार्था ।
___ जो कष्टसहस्री रूप से सिद्ध है अर्थात् सहस्रों कष्ट झेलकर जिसका कार्य हुआ है एवं कुमारसेन मुनि को सूक्तियों से वर्धमान-वृद्धिंगत अर्थवाली है अथवा जो श्रेष्ठ है, वह अष्टसहस्री जिनवाणी भारती हमेशा ही हमारे अभीष्ट सहस्री-सहस्रों मनोरथों को पुष्ट करे-सफल करे।
इन शब्दों से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि श्री विद्यानन्दि आचार्य को इस ग्रन्थ की रचना में अनेक संघर्ष एवं कष्ट झेलने पड़े हों। वे कष्ट चाहे शारीरिक रहे हों या वाद-विवाद स्वरूप मानसिक एवं आगन्तुक हों; उन सभी को धैर्यपूर्वक सहन करते हुए ग्रन्थरचना को पूर्ण किया, यह उनके महान् पौरुष की एक मात्र अमिट निशानी है। जीवन में कष्टों का आना एक सहज बात है, किन्तु उन्हें सहन कर कार्य को पूर्ण करना महापुरुषों का कार्य है।
हम सभी का यह परम सौभाग्य है कि बिना किसी परिश्रम के ऐसे दुरूह ग्रन्थों के स्वाध्याय का लाभ हमें प्राप्त हुआ है, अतः माँ जिनवाणी की वंदनापूर्वक पूर्वाचार्यों को नमन करते हुए पू० ज्ञानमती माताजी की इस "स्याद्वादचितामणि" नामक हिन्दी टीका समन्वित "अष्टसहस्री" ग्रन्थ का अध्ययन और अनुचिन्तन करते हुए अपनी आत्मा के साथ उचित न्याय का प्रबन्ध करें।
जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर
१५-३-६०
955
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org