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स्फुट मकलंकपदं या प्रकटयति पदिष्टचेतसामसमम् । दर्शितसमन्तभद्रं साष्टसहस्री सदा जयतु ॥१॥ (पंचम् परिच्छेद पृ० ३३६) पुष्यदकलंकत्ति समन्तभद्रप्रणीततत्त्वार्थाम् । निजितदुर्णयवादामष्टसहस्रीमवैति सदृष्टिः॥१॥ (षष्ठम् परिच्छेद पृ० ३५०) निर्दिष्टो यः शास्त्रे हेत्वागमनिर्णयः प्रपञ्चेन । गमयत्यष्टसहस्री संक्षेपात्तमिह सामर्थ्यात् ॥१॥ (सप्तम् परिच्छेद पृ० ३७५) ज्ञापकमुपायतत्त्वं समन्तभद्राकलंकनिर्णीतम् । सकलैकांतासंभवमष्टसहस्री निवेदयति ॥१॥ (अष्टम् परिच्छेद पृ० ४३७) सम्यगवबोधपूर्व पौरुषमपसारिताखिलानर्थम् । देवोपेतमभीष्टं सर्व संपादयत्याशु ॥१॥ (नवम् परिच्छेद पृ० ४४६) श्रीमदकलंकविवृतां समन्तभद्रोक्तिमत्र संक्षेपात् । परमागमार्थविषयामष्ट सहस्री प्रकाशयति ॥१॥ (दशम् परिच्छेद पृ० ४६०)
इन समस्त श्लोकों के द्वारा विद्यानंदि स्वामी ने पूर्ववर्ती आचार्य और उनकी कृतियों पर विशेष आस्था व्यक्त करते हुए अपनी इस टीका का श्रेय उन्हीं को प्रदान किया है। अतः दशम परिच्छेद वाले अन्तिम मंगलाचरण में उन्होंने कहा है
श्री स्वामी समन्तभद्र के देवागमस्तोत्र रूप वचन हैं अथवा समन्तात् सभी तरफ से भद्र-कल्याण को करने वाले वचन हैं उनकी श्री भट्टाकलंक देव ने अष्टशती नाम से टीका की है अथवा जो श्री-अन्तरंग, बहिरंग लक्ष्मी से सहित, कलंकरहित निर्दोष हैं एवं परमागम के अर्थ को विषय करने वाले हैं, उन्हीं को संक्षेप में अष्टसहस्री नाम की टीका प्रकाशित करती है।
इसी प्रकार से इस महान् ग्रन्थराज की टीकाकर्वी गणिनी आयिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने भी प्रत्येक परिच्छेद के प्रारम्भ में मंगलाचरण स्वरूा १-१ श्लोकों की रचना की है, जिन्हें इस ग्रंथ में प्रकाशित किया गया है।
जैसे चतुर्थ परिच्छेद के प्रारम्भ में उनका निम्न श्लोक है जो कि इसमें पृ० २६० पर छपने में छूट गया है, किन्तु उसका हिन्दी अनुवाद यथा स्थान छपा हुआ है
भेदाभेदविनिमुक्तं योगिगम्यमगोचरम् । निर्भेदमप्यनंतं तं शुद्धात्मानं नमाम्यहम् ॥
अर्थात् जो भेद-अभेद से रहित है, योगियों के ज्ञान गोचर होकर भी अगोचर है, भेदों से रहित एक होकर भी गुणों की अपेक्षा अनंत है, ऐसी शुद्धात्मा को हम नमस्कार करते हैं ।
इसी शुद्धात्मा को प्राप्त परमात्मा-आप्त की परीक्षा करते हुए श्रीसमंतभद्राचार्य ने अलंकारमयी स्तुति की है। पृष्ठ ३५० पर भी एक मंगलाचरण श्लोक में टीकाकी ने अपने भाव खोले हैं
जैनेन्द्रक्त्रांबुजनिर्गता या, भव्यस्य माता हितदेशनायां। अनंतदोषान् क्षपितु क्षमापि, तनोतु सा मे वरबोधिलब्धिम् ॥
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