SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस अष्टसहस्री का हिन्दी अनुवाद तो सन् १९७० में ही सम्पन्न हो चुका था, किन्तु पूर्ण रूपेण प्रकाशन अब सम्भव हो सका। फलस्वरूप तृतीय भाग (अंतिम भाग) भी पाठकों के समक्ष है। प्रस्तुत ग्रन्थ को आचार्यश्री विद्यानदि स्वामी ने दस परिच्छेदों में विभक्त किया है जिसमें प्रथम परिच्छेद में २३ कारिकाओं की टीका है उसको पू० माताजी ने दो भागों में प्रकाशित कराया है। द्वितीय से लेकर दसवें परिच्छेद तक शेष ११ कारिकाओं की टीका है, जिसे इस तृतीय भाग में प्रकाशित किया गया है। इन समस्त परिच्छेदों के शुभारम्भ में श्री विद्यानन्दि महोदय ने स्वरचित १-१ श्लोक मंगलाचरण के रूप में दिये हैं । जैसे—द्वितीय परिच्छेद के प्रारम्भ में ही देखेंश्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः। विज्ञायते ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः॥ अर्थात् जिसके द्वारा ही स्वसमय और परसमय का सद्भाव जाना जाता है, ऐसी अष्टसहस्री को ही सुनना चाहिए, अन्य हजारों शास्त्रों को सुनने से क्या प्रयोजन ? देखिए ! स्वयं ग्रन्थकर्ता ने अपने ग्रन्थ को कितना महत्त्वपूर्ण बतलाया है। क्या उनके इस प्रकार के शब्दों में अभिमान की झलक नहीं है ? आज का अल्पज्ञ एवं रागी मानव तो स्पष्ट कहने को बाध्य हो जाएगा कि आचार्यश्री को अपनी कृति निर्माण का कितना अभिमान था; किन्तु वह अभिमान नहीं स्वाभिमान था जिससे उन्होंने असली वस्तुस्थिति के परिज्ञान हेतु श्रोताओं के लिए ऐसे वचन कहे थे। यह गर्वोक्ति नहीं, स्वभावोक्ति है । यदि पूर्वाचार्यों की देशनुसार हम भी स्याद्वादमयी लेखनी से अपना ग्रन्थ प्रसवित करते हैं तो गौरवपूर्ण वचनों द्वारा ऐसा ही कहने का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु करने के साथ-साथ हमें जिनवचनों में पूर्ण श्रद्धा और गुणज्ञता होनी ही चाहिए । इसी प्रकार तृतीय परिच्छेद के प्रारम्भ में उन्होंने कहा है अष्टशती प्रथितार्था साष्टसहस्री कृतापि संक्षेपात् । विलसदकलंकधिषणैः प्रपञ्चनिचितावबोद्धव्या । अर्थात् श्री भकलंकदेव द्वारा रचित अष्शती अपने प्रसिद्ध अर्थ सहित है, उसी के ऊपर मैंने अस्टसहस्री टीका हजार श्लोकों में की है, जो संक्षिप्त ही है। उत्तम बुद्धि के धारक पुरुष को उसका अर्थ विस्तृत रूप में समझना चाहिए। ज्ञान की अगाध गंगा जिनके हृदय में समाहित है, ऐसे गुरुवर्य इतने विशाल ग्रन्थ को भी संक्षिप्त कह रहे हैं, भला इससे अधिक विस्तार अर्थ का बोध आज का मानव कैसे कर सकता है ? सरस्वती माता की कृपा प्रसाद से यदि इतने अर्थ को समझने की क्षमता मुझमें आ जावे तो मेरा जीवन धन्य हो जावेगा। चतुर्थ परिच्छेद के मंगलाचरण में आचार्यश्री के भाव देखिएजीयादष्टसहस्री देवागमसंगतार्थमकलंकम् । गमयन्ती सन्नयतः प्रसन्नगम्भीरपदपदवी॥ इस श्लोक में अष्टसहस्री ग्रन्थ के चिरकाल तक जयशील रहने की मंगल कामना की है ताकि भव्यजन न्यायदर्शन का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त कर सकें। इसी प्रकार से पंचम से लेकर दसवें परिच्छेद तक निम्न मंगलाचरण श्लोकों में विद्यानंदि महोदय ने अपने विभिन्न अभिप्राय व्यक्त किए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy