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________________ अष्टसहस्री की महिमा उमास्वामिकृतं पूत - मर्हत्संस्तवमंगलं । महेश्वरश्रियं दद्यात्, महादेवपदस्थितं ॥ प्रस्तुत अष्टसहस्त्री ग्रन्थ में हिन्दी टीकाकर्त्री पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने प्रारम्भ में २४ तीर्थंकरों के सूचक २४ इस शुभ अंक में स्वरचित संस्कृत भाषा में 'मंगलस्तव' स्वरूप श्लोक उद्धृत किए हैं । जिनमें उपर्युक्त १८वें श्लोक में महादेव - अर्हत भगवान् का स्मरण करते हुए कहा है आर्यिका चन्दनामती "उमास्वामी के द्वारा कृत, पवित्र अर्हतदेव का स्तवरूप मंगलाचरण महादेव पद में स्थित ऐसी महेश्वर की लक्ष्मी मुझे प्रदान करें ।” व्याकरण, छंद और अलंकार में मिष्णात परमविदुषी आर्यिका श्री ने इस श्लोक में श्लेषालंकार का प्रयोग करते हुए भावार्थ में विषय खोला है "उमा - पार्वती के पति महादेव पक्ष में उमा-लक्ष्मी तपोलक्ष्मी के स्वामी आचार्यश्री उमास्वामी के द्वारा रचित "मोक्षमार्गस्य नेतारं " आदि मंगलाचरण मुझे महादेव की लक्ष्मी -- "महांश्चासो देवश्च महादेवः " के अनुसार महान् देव-देवों के भी देव श्री अर्हतदेव की लक्ष्मी प्रदान करें । यह तो सर्वविदित ही है कि अष्टसहस्री ग्रन्थ जैन दर्शन में न्याय का सर्वोच्च ग्रन्थ माना जाता है । न्याय की मांग आज उच्चस्वरों में सारी जनता कर रही है क्योंकि बड़े-बड़े न्यायालयों में भी अन्याय का बोलबाला चल रहा है । उसका मुख्य कारण यही समझ में आता है कि स्वयं अपनी आत्मा के साथ अन्याय करने वाले रागी -द्वेषी मानव भला दूसरों के साथ समुचित न्याय कैसे कर सकते हैं ? आचार्यश्री समंतभद्र और विद्यानंदि स्वामी जैसे वीतरागी ( संसार शरीर भोगों से वीतरागी और सराग चारित्र का पालन करने वाले) महामुनियों ने आगम और तर्कसंगत युक्तियों के बल पर जैसा न्याय अपने ग्रन्थों में प्रदर्शित किया है, वह सर्वथा अकाट्य है । भाषा की कठिनता और दुरूह विषय होने के कारण इस ग्रन्थ का पठन-पाठन लुप्तप्रायः हो गया था, किन्तु मानो माता सरस्वती ने ही ज्ञानमती माताजी के रूप में जन्म लेकर प्राचीन न्याय शैली का अवबोध कराने का संकल्प लिया हो, जिसके फलस्वरूप अष्टसहस्री ग्रन्थ सुगमरीत्या प्राप्त होने की शुभघड़ी आई है । Jain Education International जैसे सुयोग्य संतान के द्वारा ही माता-पिता का नाम और वंश युगयुगांतर तक कीर्ति प्राप्त करता है, उसी प्रकार सुयोग्य शिष्य परम्परा ही गुरु की कृतियों का मूल्यांकन और उनकी यशवृद्धि को करने में सहायक होती है। कौन जानता था कि हजारों वर्ष प्राचीन कृति का जीर्णोद्धार ज्ञानमती माताजी द्वारा होगा किन्तु मूलसंघ के कुन्दकुन्दाम्नाय सरस्वती गच्छ बलात्कार गण के सुप्रसिद्ध चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी के प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की शिष्या गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी इस युग की महान् लेखिका बन गईं जिनके द्वारा वंशावली की कीर्ति में चार चाँद लगे हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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