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________________ ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन ] तृतीय भाग [ ४६७ एवमपि प्रकृतसाधनव्यतिरेकानिश्चयात् । तथा हि, तनुकरणभुवनादिकं विवादापन्नं बुद्धिमत्कारणपूर्वकं, विरम्य प्रवृत्तः सन्निवेशविशिष्टत्वादचेतनोपादानत्वादर्थक्रियाकारित्वात्कार्यत्वाद्वा घटवदिति साधनमुच्यते, तस्यात्मान्तरमीश्वराख्यं बुद्धिमत्कारणमन्तरेणाचेतनस्यात्मनोऽनीशस्य' धर्माधर्मयोश्चाचेतनयोविचित्रोपभोगयोग्यतनुकरणभुवनादिनिर्मापणकौशलासंभवात्तन्निमित्तकारणमात्मान्तरं बुद्धिमत्कारणमेषितव्यमित्यनेन व्यतिरेकः समर्थ्यते । कुलालमन्तरेण मृत्पिण्डदण्डादेः स्वयमचेतनस्य घटादिनिष्पादनकौशलासंभववदिति वैधर्म्यदृष्टान्तप्रदर्शनम्' । सत्येव कुलाले मृत्पिण्डादेर्घटादिसंपादनसामर्थ्यदर्शनादिति चान्वयसमर्थनमभिधीयते । न चैतदभिधातुं शक्यमन्यथानुपपत्तेरभावात् । बुद्धिमता कारणेन विना जाता है इसमें सभी हेतु ईश्वर नामक बुद्धिमत्कारण रूप आत्मान्तर के बिना नहीं हो सकते हैं। कारण कि हम नैयायिकों के यहाँ तो आत्मा अचेतन ही है वह स्वरूप से तो चेतन है नहीं पहले तो वह अचेतन ही है पुनः चेतनागुण के समवाय से ही चेतन होता है अतएव आत्मा अचेतन और अनीश-असमर्थ है एवं धर्म-अधर्म भी अचेतन हैं। इन आत्मा और धर्म-अधर्म में विचित्र उपभोग योग्य तनुकरण भुवनादि के निर्माण करने की कुशलता असम्भव ही है अतएव उन सृष्टि का निमित्तकारण रूप भिन्न आत्मा ही है ऐसा स्वीकार करना चाहिये । इस कथन से व्यतिरेक का समर्थन सिद्ध ही है। क्योंकि जैसे कुम्भकार के बिना अचेतन रूप मृत्पिड दण्डादि स्वयं घटादि को बनाने में कुशल नहीं हो सकते हैं । इस प्रकार से वैधर्म्य दृष्टांत को प्रदर्शित किया है । कुम्भकार के होने पर ही मृत्पिडादि में घटादि को सम्पादन करने की सामर्थ्य देखी जाती है । इस प्रकार से अन्वय का समर्थन भी हम नैयायिकों ने कर दिया है। जैन-इस प्रकार से अन्वय, व्यतिरेक का समर्थन करना शक्य नहीं है क्योंकि इन हेतुओं में अन्यथानुपपत्ति-अविनाभाव का अभाव है। नैयायिक-बुद्धिमान् कारण के बिना "विरम्य प्रवृत्यादि" हेतुओं का अभाव है अतः अन्यथानुपपत्ति है ही है। 1 यत्र यत्र कार्यत्वं तत्र तत्र बुद्धिमद्धेतुकत्वमिति नियमाभावात् । तृणादी । ब्या० प्र० । 2 एवम् । ब्या० प्र० । आह परोस्मत्साधने व्यतिरेकोस्ति कथमस्तीत्युक्ते परोनुमानद्वारेण व्यतिरेकमाह अग्रे । दि० प्र० । 3 ईश्वररहितस्य । दि० प्र० । 4 निर्मापणः । ब्या० प्र० । 5 तन्वादि । दि० प्र० । 6 एवम् । व्या० प्र०। 7 व्यतिरेक । दि०प्र० । 8 व्यतिरेकसमर्थनम् । ब्या० प्र० । 9 ईश्वरमन्तरेण न भवति । ब्या० प्र० । 10 ईश्वरवाद्याह बुद्धिमत्कारणपूर्वक भवतीति साध्याभावे विरम्य प्रवृत्तेरितिसाधनस्याप्यभावस्तस्मादस्मत्कृतानुमाने अन्यथानुपपत्तिरस्त्येव इति चेत् = स्या० एवं न कस्माद्वक्ष्यमाणानुमानादीश्वरः पक्षः बुद्धिमत्कारणको न भवतीति साध्यो धर्मो शरीरेन्द्रियत्वात् यथाकालाकाशादि:= तादृशः शरीरस्येश्वरस्य तनुभवनादिकार्याणां निमित्तकारणत्वे सति कर्मणामचेतनत्वेपि कार्यनिमित्तत्वं सिद्ध कस्मात्कुलालादिवदिति भवत्कृतदृष्टान्तस्य सर्वथोल्लंघनात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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