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________________ ४६६ ] अष्टसहस्री [ ८० ५० कारिका ६६ न्निवेशविशेषादिभ्यः पृथिव्यादेर्बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वसाधनेनेश्वरप्रापणं' प्रत्युक्तं, धर्माधर्माभ्यामेवात्मनः शरीरेन्द्रियबुद्धीच्छादिकार्यजननस्य सिद्धः, बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वमन्तरेणापि' विरम्यप्रवृत्तिसन्निवेशविशेषकार्यत्वाचेतनोपादानत्वार्थक्रियाकारित्वादीनां साधनानामुपपत्तेस्ततः पृथिव्यादेबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वासिद्धेः ।। [ ईश्वरेण सह सृष्टेरन्वयनतिरेको स्त: इति नैयायिकेनोच्यमाने जैनाचार्या निराकुर्वति । ] ननु प्राक्कायकरणोत्पत्तरात्मनो धर्माधर्मयोश्च स्वयमचेतनत्वाद्विचित्रोपभोगयोग्यतनुकरणादिसंपादनकौशलासंभवात् तन्निमित्तमात्मान्तरं, मृत्पिण्डकुलालवदिति चेन्न, कार्यों को बुद्धिमत् कारणपूर्वक सिद्ध करने रूप हेतु से ईश्वर को सिद्ध करना" यह गलत है यह बात कह दी गई है। यह आत्मा धर्म और अधर्म के द्वारा ही शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि और इच्छादि कार्यों को उत्पन्न करने वाला सिद्ध है । क्योंकि बुद्धिमत् कारणपूर्वक के बिना भी अनुक्रम से प्रवृत्ति सन्निवेश विशेष, कार्यत्व, अचेतनोपादत्व, अर्थक्रियाकारित्व आदि हेतु बन जाते हैं। इसलिये इन हेतुओं से ही पृथ्वी आदि कार्य बुद्धिमत् कारणपूर्वक नहीं हैं यह बात सिद्ध हो गई। [ ईश्वर के साथ सृष्टि का अन्वय-व्यतिरेक सिद्ध है ऐसा नैयायिक के द्वारा कथन होने पर जैनाचार्य उसका निराकरण करते हैं । ] नैयायिक-शरीर और इन्द्रियों की उत्पत्ति के पहले आत्मा धर्म और अधर्म स्वयं अचेतन हैं वे विचित्र उपयोग के शरीर, इन्द्रियादि को बनाने में कुशल नहीं हैं अतएव उनका निमित्त कोई आत्मान्तर -भिन्न आत्मा है ही है जैसे कि मृत्पिड से घड़े को बनाने वाला कुम्भकार है। जैन-ऐसा नहीं कहना। इस प्रकार से आत्मान्तर का अन्वेषण करने पर भी प्रकृत हेतुओं में व्यतिरेक निश्चित नहीं है। नैयायिक-नहीं, व्यतिरेक सिद्ध है । तथाहि । "विवादापन्न तनुकरण भुवनादिक बुद्धिमत् कारणपूर्वक हैं क्योंकि उनमें विरम्य-क्रम से प्रवृत्ति होती है, उनका सन्निवेश विशिष्ट है, उन कार्यों का उपादान अचेतन है, वे अर्थक्रियाकारी हैं एवं कार्य हैं घट के समान।" इस प्रकार अनुमान कहा 1 भा। दि० प्र०। 2 पुण्यपापाभ्याम् । ब्या० प्र०। 3 पुंसः । ब्या० प्र०। 4 साध्यम् । ब्या०प्र०। 5 ता दि० प्र०। 6 अत्राह परः हे स्याद्वादिन् आत्मनः शरीरादिकार्यजननं धर्माधर्माभ्यामेव जायत इति यदुक्तं त्वया तन्न घटते कथं न घटते इत्युक्ते परोनुमानद्वारेणाह कार्येन्द्रियोत्पत्तेः पूर्वमात्मधर्माधर्माः पक्षः विचित्रोपभोगयोग्यतनुकरणादिसंपादनासमर्था भवन्तीति साध्यो धर्म : स्वयमचेतनत्वात् मृत्पिण्डादिकुलालवदिति चेत् स्वा० एवं न । कस्मात् पृथ्च्यादेरीश्वरस्य कर्तृत्वसाधने व्यतिरेकाभावात् । दि० प्र०। 7 आत्मनो धर्माधर्मयोश्च । ब्या० प्र० । 8 प्रकृतात्मनः सकाशादपरमीश्वरलक्षणं मृग्यम् । ब्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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