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ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ४६५ सिद्धेः, अन्वयमात्रेण कारणत्वे तदकारणत्वाभिमतानामपि तत्प्रसङ्गात् । न चैकस्वभावाबोधात्कामादिकार्यवैचित्र्यं क्रमतोपि युज्यते महेश्वरसिसृक्षाभ्यामिति', किमनया चिन्तया ? तयोरेकस्वभावत्वेपि कर्मवैचित्र्यात्कामादिप्रभववैचित्र्यमिति चेद्युक्तमेतत् किंतु नेश्वरेच्छाभ्यां किंचित्, तावतार्थपरिसमाप्तेः, सति कर्मवैचित्र्ये कामादिप्रभववैचित्र्यस्य भावादसत्यभावात् 'कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः' इत्यस्यैव दर्शनस्य प्रमाणसिद्धत्वात्, अनिश्चितान्वयव्यतिरेकयोरीश्वरेच्छयोः कारणत्वपरिकल्पनायामतिप्रसङ्गात् । एतेन विरम्यप्रवृत्तिस
नैयायिक-ईश्वर के होने पर वे तनुभुवन आदि होते हैं अतः ये ज्ञानादि कार्य उस ईश्वर के कारण से हुये हैं यह बात सिद्ध है अतएव ईश्वर की कल्पना अनर्थक नहीं हो सकती है।
जैन - नहीं, काल से भी एवं देश से भी व्यतिरेक सिद्ध नहीं है तथा अन्वयमात्र से उस ईश्वर को कारण स्वीकार कर लेने पर तो अकारण रूप से अभिमत सम्पूर्ण आत्मायें भी कारण बन जावेंगी, किन्तु ऐसा तो है नहीं। एक स्वभाव वाले ज्ञान से काम-राग आदि कार्यों की विचित्रता क्रम से भी बन नहीं सकती है एवं एक स्वभाव वाले महेश्वर और उसकी सिसृक्षा से भी कार्य वैचित्र्य असम्भव हैं। इसलिये इस महेश्वरज्ञान की कल्पना से, विचारणा से भी क्या प्रयोजन है ?
नैयायिक-महेश्वर एवं उसकी सिसक्षा यद्यपि एक स्वभाव वाली हैं, फिर भी कर्मों को विचित्रता से रागादि दोषों से उत्पन्न होने वाला यह संसार विचित्र प्रकार का होता है।
___ जैन-यदि ऐसा कहो तब तो ठीक ही है, किन्तु ईश्वर और उसकी इच्छा से कुछ भी प्रयोजन नहीं रहा क्योंकि उस कर्म से ही उन संसार रूप कार्यों को परिसमाप्ति - सिद्धि हो जाती है।
कर्मों की विचित्रता के होने पर ही कामादि से उत्पन्न हुआ यह विचित्र संसार होता है एव नहीं होने पर नहीं होता है "कामादिप्रभवश्चित्र: कर्मबन्धानुरूपतः" इस कारिका के द्वारा कहा गया यह जैनदर्शन ही प्रमाण से सिद्ध हो जाता है, क्योंकि ईश्वर और उसकी इच्छा का कार्य के साथ अन्वय-व्यतिरेक निश्चित न होने से ईश्वर और उसकी इच्छा को सृष्टि का कारण कल्पित करने पर तो अतिप्रसङ्ग दोष आ जावेगा अर्थात् सभी आत्मायें भी पुनः सृष्टि के कारण बन जावेंगे। कारण कि अन्वय-व्यतिरेक न तो महेश्वर और उसकी इच्छा के साथ रहे न अन्यों के साथ ही रहते हैं।
इसी कथन से "विरम्य प्रवृत्ति-अनुक्रम से होना, सन्निवेश विशेषादि हेतुओं से भी पृथ्वी आदि
1 देवादागतानां रासभादीनामपिकारणत्वं भवतु । ब्या० प्र० । 2 ईश्वरबोधात् । ब्या०प्र० । 3 आह पर महेश्वरसिसृक्षाभ्यां द्वाभ्यां कामादिकार्यवैचित्र्यं घटते चेत् स्या० तदा ईश्वरज्ञाने न पूर्यताम् । =पर आह तयोरीश्वरसिसक्षायोयोरेकस्वभावत्वेपि कर्मवैचित्र्यवशात्कामादिप्रभववैचित्र्यं घटते =स्या० यूक्तमूक्तं भवता ईश्वरेच्छाभ्यां किञ्चित्कार्य सिद्धिर्न तावता कर्मवैचित्र्यमात्रेणैव कामादिप्रभवलक्षणकार्यदर्शनात् । दि० प्र०। 4 पुण्यादि । स्वकीयस्वकीयात्मनि । ब्या० प्र०1 5 विलम्ब्य । ब्या० प्र० ।
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