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________________ ४६४] [ द० प० कारिका ६६ विरोधात् । यदि पुनरपरापरसर्वार्थज्ञानस्याविच्छेदात् ' सदाशेषवेदित्वमविरुद्धं तदा कुतो व्यतिरेकस्तस्य सिध्येत् ? कथं चानित्यस्य बोधस्येश्वरबोधान्तरानपेक्षस्योत्पत्तिर्न पुनः सिसृक्षातन्वादिकार्याणामिति विशेष हेतोविना प्रतिपद्येमहि ? तस्य बोधान्तरापेक्षायामनवस्थानं तदवस्थम् । स्यान्मतं – पूर्वपूर्वबोधसिसृक्षावशादुत्तरोत्तरबोधसिसृक्षातन्वादिकार्याणामुत्पत्तेरनादित्वात्कार्यकारणभावस्य बीजाङ्कुरादिवदयमदोष इति नैतत्सारमीश्वरकल्पनानर्थक्यप्रसङ्गात् । तद्भावे भावाद्बोधादिकार्याणां तत्कारणत्वसिद्धेर्नानर्थक्यमिति चेन्न, व्यतिरेका अष्टसहस्री जैन - ऐसा नहीं कहना अन्यथा आपका ईश्वर कदाचित् क्वचित् ज्ञान से रहित हो जावेगा और उस अवस्था में वह सर्ववेदी - सर्वज्ञ नहीं रहेगा । नैयायिक- अपरापर सम्पूर्ण अर्थों के ज्ञान का अविच्छेद होने से सदा हमारे ईश्वर का अशेष ज्ञानी होना अविरुद्ध है । जैन - यदि आप ऐसा कहें तब तो उस ईश्वर का क्वचित् व्यतिरेक कैसे सिद्ध होगा ? पुनरपि प्रश्न यह होता है कि वह ईश्वर का ज्ञान अनित्य है वह ज्ञानान्तर की अपेक्षा नहीं रखता या रखता है ? यदि वह अनित्यज्ञान, ईश्वर के ज्ञानान्तर की अपेक्षा न रखकर उत्पन्न होता है, किन्तु सिसृक्षा और तनु आदि कार्य ईश्वर के ज्ञानान्तर की अपेक्षा रखने वाले नहीं हैं इस बात को तो किसी विशेष हेतु के बिना हम लोग कैसे समझें ? यदि वह ईश्वर का ज्ञान ज्ञानान्तर की अपेक्षा रखता है तब तो अनवस्था दोष ज्यों का त्यों बना रहेगा । नैयायिक पूर्व - पूर्व का ज्ञान और सिसृक्षा के निमित्त से उत्तरोत्तर ज्ञान सिसृक्षा और 'तनु भुवन' आदि कार्यों की उत्पत्ति होती है क्योंकि बीजांकुर न्याय के समान कार्यकारण भाव अनादि हैं इसलिये हमारे यहाँ कोई दोष नहीं है । जैन - आपका यह कथन भी सारभूत नहीं है क्योंकि ऐसी मान्यता में तो ईश्वर की कल्पना भी अनर्थक ही हो जावेगी । 1 पर आह ईश्वरज्ञानस्य पूर्वज्ञानादुत्तरोत्तराच्चजायमानस्यानवरत प्रवर्त्तनात् नित्यं सर्वज्ञत्वमीश्वरस्य न विरुद्ध यत इति चेत्तदा तस्य ज्ञानस्य कालादिव्यतिरेकः कुतः सिद्ध्यन्न कुतोपि तथा अनित्यः सन् ईश्वरबोध ईश्वरान्यबोधमन पेक्ष्य उत्पद्यते अपेक्ष्य उत्पद्यते वेति विकल्पः । अनपेक्ष्य उत्पद्यते बोधः सिसृक्षा तत्वादिकार्याणि अनपेक्ष्य नोत्पद्यते इति विशिष्टकारणं विना वयं स्याद्वादिनः कथं जानीमहे अपितु नापेक्ष्य बोध न्तरं बोध उत्पद्यते चेत्तदानवस्था तिष्ठति । दि० प्र० । 2 पर आह पूर्वपूर्वज्ञानसिसृक्षावशादुत्तरोत्तरं ज्ञानसिसृक्षातन्वादिकार्याणि उत्पद्यन्ते तस्माद्बीजाङ्कुरन्यायेन अयं कार्यकारणभावोनादिरस्ति । तस्मात्पूर्वोक्तोनवस्थादिलक्षणो दोषोरसम्भवतीति चेत् स्या० एतदपि ते वचनमसारं कस्मादीश्वरः कर्त्तेति कल्पनाया अनर्थक्यमायाति यतः । दि० प्र० । 3 ईश्वरे सति बोधादिकार्याणि अतस्तत्कल्पनयानर्थक्यं न । दि० प्र० । 4 बसः । व्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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