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________________ अनेकांत को सिद्धि ] तृतीय भाग [ ४८१ लापेक्षया स्तोकादपि छद्मस्थवीत रागचरमक्षणभाविनः साक्षादार्हन्त्यलक्षणमोक्षस्य सिद्धेः । तद्विपरीतात्तु मोहवतः स्तोकज्ञानात् सूक्ष्मसाम्परायान्तानां मिथ्यादृष्ट्यादीनां कर्मसंबन्ध एव । इति चिन्तितमन्यत्र। हो जाता है, किन्तु विपर्यय-मोह का नाश न होने पर उस बुद्धि के अपकर्ष रूप अज्ञान से बन्ध ही होता है ऐसा समझना चाहिये । प्रकृष्ट श्रुतज्ञानादि क्षायोपशमिक ज्ञान हैं वे केवलज्ञान की अपेक्षा से स्तोक ही हैं, वह स्तोकज्ञान छद्मस्थ वीतराग-बारहवें गुणस्थानवी जीव के चरम समय में विद्यमान है, उस स्तोकज्ञान से भी साक्षात् आर्हत्य लक्षण मोक्ष सिद्ध है। उससे विपरीत मोहसहित स्तोकज्ञान से सूक्ष्मसांपराय नामक दसवें गुणस्थान पर्यंत मिथ्यादृष्टि आदि जीवों के कर्म का बंध है ही है। इस विषय पर "श्लोक वाति कालंकार" में विशद वर्णन किया गया है। 'अज्ञान से बंध एवं ज्ञान से मोक्ष के खण्डन' का सारांश सांख्य का कहना है कि अज्ञान से बंध एवं ज्ञान से मोक्ष होता है । इस पर आचार्यों का कथन है कि यदि अज्ञान से बंध अवश्यंभावी मानों तो ज्ञेयपदार्थ तो अनन्त हैं पुन: उनको जानने वाला केवली कोई भी नहीं हो सकेगा तथा यदि अल्पज्ञान से मोक्ष मानों तो बचे हुये अवशिष्ट अज्ञान से बंध हो जावेगा । अज्ञान का अर्थ प्रसज्य प्रतिषेध करने पर तो ज्ञान का अभाव ही अज्ञान सिद्ध होगा एवं पर्युदास निषेध करने पर ज्ञान से भिन्न मिथ्याज्ञान रूप अज्ञान होता है। यदि प्रथम पक्ष लेवें तो ज्ञान के अभाव से बंध अवश्यंभावी होकर केवलज्ञानी कोई भी नहीं हो सकेगा। सांख्य- इस जगत् में मेरा कुछ भी नहीं है, मैं केवल असहाय हूँ ऐसे तत्त्वज्ञान से केवलज्ञान हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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